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उत्तराखण्ड में लोक कलाएँ/folk arts social dance in uttrakhand

 

लोक कलाएँ
भारत की सभी पारव्परिक कलाओं के सदृश उत्तराखण्ड की लोक कलाओं पर धार्मिक प्रभाव दृष्टिगोचर होता है. इस धार्मिक प्रभाव के अनुसार ही इसे विविध रूप दिया गया है. 

उत्तराखण्ड की लोक कला को मोटे तौर पर चार भागों में वर्गीकरण किया जा सकता है-
1. ऐषना (रंगोली या अल्पना),
2. वार-बूंद (दीवार पर बने नमूने).,
3. ज्योति और पट्टा (आकृतियों का चित्रांकन),
4. दिकारा (मिट्टी की मूर्तियाँ).

(1) ऐपना-ऐपना शब्द अल्पना का स्थानीय रूपान्तर है जो आँगन से प्रवेश द्वार तक जाने वाली सीढ़ियों पर, देहरी
पर, पूजा स्थल की भूमि और दीवारों पर, बैठने की पीकी पर, सूप के ऊपरी सतह पर, जिस पात्र में तुलसी ऊगाई गई है, उसके बाहरी सतह पर और ओखली के चारों ओर वनाए गये रंगीन नमूनों के लिए प्रयुक्त होता है. प्रायः ऐपना क निर्माण पानी, लाल मिट्टी और चावल की लेई से होता है.

(2) बार-बूंद-सर्वत्र वारम्बार एक ही नमूने से पूरी दीवार को चित्रित करना ही बार-बूँद बनाना है. इस शब्द का अक्षरशः अर्थ रेखाओं और विन्दुओं से है. परम्परा के अनुसार कुछ निश्चित विन्दुओं को वनाकर उनको रेखाओं से जोकर दीवार पर विभिन्न नमूने बनाए जाते हैं. इस तरह वनाए गये नमूनों को विभिन्न रंगों द्वारा भरा जाता है.

(3) ज्योति और पट्टा-ज्योति शब्द जीव मातृक (सभी प्राणियों की जननी) शब्द से उत्पन्न हुआ है और यह नमूना
तीन देवियों का चित्रण है. जीव मातृकाएँ और इनके साथ ही गणेश जिन्हें सभी विघ्नों का नाश करने वाला माना गया है. पट्टा वह चित्र है जो किसी देवता विशेष का चित्रण करता है जिसमें उस देवी या देव को विभिन्न रूपों में दर्शाया
जाता है और यह पूजा के लिए होता है. यह जन्माष्टमी, दशहरा और दीपावली जैसे त्योहारों पर अथवा उत्सवों के
अवस ो पर दीवारों अथवा कागज पर वनाया जाता है.

(4) दिकारा-दिकारा, देवी-देवताओं की मिट्टी की तीन दिशाओं में उभारदार मूर्तियाँ होती हैं. इनको कपास मिश्रित
चिकनी मिट्टी से लड़कियाँ और स्त्रियाँ वनाती हैं. सूखने पर इनको चावल पीसकर जो सफेद रंग बन जाता है, उससे
रंगते हैं और इसके बाद सारे रंगों से अरथवा रंगों में गोद मिलाकर पेंट किया जाता है. वर्षा ऋतु में हरियाली के उत्सव पर पूजा करने हेतु दिकारा वनायी जाती है. यह मूलतः किसानों का त्योहार है जो शिव-पार्वती के विवाह के
वार्षिकोत्सव के रूप में मनाया जाता है. इस पर्व पर मुख्यतः शिव और पार्वती और उनके दो पुत्र गणेश और कार्तिकेय को ही दिकारा वनती है.

सांस्कृतिक एवं साहित्यिक संस्थाएँ
सन् 1918 में श्री राम सेवक सभा, नैनीताल की स्थापना धार्मिक कार्यों जैसे नन्दा देवी उत्सव और रामलीला का
आयोजन करने हेतु तथा साहित्यिक, सामाजिक और सांस्कृतिक कार्य कलापों को करने हेतु की गई थी. यह एक
पुस्तकालय चलाती है और संगीत सभाओं एवं नाटकों का आयोजन करती है, इनका अपना एक भवन है और प्रवन्धक समिति इसके कार्यों को देखती है.

श्री हरि कीर्तन सभा
इसकी स्थापना सन् 1940 में नैनीताल में हुई. इसकी स्थापना शास्त्रीय संगीत, वाद्य संगीत में प्रशिक्षण लोक नृत्य
और लोक नाट्य के विकास हेतु और बाल कल्याण कार्य चलाने हेतु किया गया था. इस सभा की एक प्रबन्धक समिति है.

दि वोट हाउस क्लब
इस क्लब की स्थापना नैनीताल में सनु 1948 में की गई थी. इस क्लब का उद्देश्य डोंगी की दौड़, नावों की दौड़,
नृत्य एवं सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन करना है.

दि संस्कृत कला केन्द्र
इस कला केन्द्र की स्थापना सन् 1957 में हल्द्वानी में हुई. इस कला केन्द्र का उद्देश्य इस क्षेत्र के पारम्परिक
भारतीय संगीत एवं नाटक को लोकप्रिय बनाना है. इसका एक उद्देश्य यह भी है कि सर्वेक्षणों का संचालन करना,
संगीत साहित्य को एकत्र करना और उससे ग्रन्थ निर्माण करना तथा संगीत सभाओं, वाद-विवाद और गोष्ठियों का
आयोजन करना. यह हल्द्वानी में एक संगीत महाविद्यालय भी चलाता है.

दि नव ज्योति संघ
इसकी स्थापना नैनीताल में सन् 1965 में युवकों को खेलकूद, मैदान में खेले जाने वाले खेल और संगीत में
प्रशिक्षण देने हेतु की गई थी. यह वाद-विवाद, खेलकूद, नाटक प्रतियोगिताएँ और संगीत सभाओं का आयोजन करती है.

द शारदा संघ
यह भी नैनीताल में स्थापित है. इस सांस्कृतिक संगठन का उद्देश्य कवि सम्मेलनों और मुशायरों का आयोजन करना
है. यह एक पुस्तकालय एवं वाचनालय चला रहा है. इसकी एक प्रवन्धक समिति है.

पुस्तकालय एवं वाचनालय
दुर्गा लाल शाह म्यूनिसिपल लाइब्रेरी (1939), गोविन्द बल्लभ पंत म्यूनिसिपल लाइब्रेरी (हल्द्वानी), संकीर्तन सभा
लाइब्रेरी (नैनीताल), श्री शारदा संघ लाइब्रेरी (नैनीताल), हिन्द प्रेम सभा लाइ्रेरी (नैनीताल), संस्कृत कला केन्द्र
लाइब्रेरी (हल्द्वानी), विद्यावती पुस्तकालय, (रामनगर), हिमालयन माउन्टेनियरिंग क्लब (नैनीताल), इत्यादि लाइब्रेरियाँ हैं.