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उत्तराखण्ड में सामाजिक नृत्य/social dance in uttrakhand social dance in uttrakhand

 

Folk and Music in Uttrakhand 

 सामाजिक नृत्य

इस प्रकार के नृत्यों में मुद्राओं, नर्तन, अभिनय एवं रस का पूर्ण परिपाक मिलता है. ऐसे नृत्यों में गीतों का महत्व
अधिक होता है. इन नृत्यों में प्राचीन भारतीय नृत्यों, मध्यकालीन भारतीय नृत्यों एवं आधुनिक भारतीय नृत्यों का
सम्मिश्रण दिखाई पड़ता है. कुछ नृत्य इस प्रकार हैं-

थड़िया नृत्य
संत पंचमी से लेकर विषुवत संक्रान्ति तक अनेक सामाजिक व देवताओं के नृत्य गीतों के साथ खुले मैदान में
गोलाकार होकर स्त्रियों द्वारा किए गए लास्य कोटि के नृत्य हैं.

चौफुला नृत्य
थड़िया नृत्य की भाँति चौफुला नृत्य भी है, परन्तु इसमें तालियों की गड़गड़ाहट एवं चूड़ियों तथा पाजेबों की झनझनाहट का विशिष्ट स्थान होता है. गुजराती 'गरबा' या 'गरबी' नृत्य की छाप इस पर है.

मयूर नृत्य
पर्वत बेटियों का यह सावन की झड़ी का मनमोहक नृत्य है.

बसन्ती नृत्य
इस नृत्य में प्राचीन परम्परा के मदनोत्सव या वसन्तोत्सव की छाप है.

होली नृत्य
उल्लास एवं रसिकता का नृत्य है. मथुरा-वृन्दावन के रास की छाया इस नृत्य में होती है.

खुदेड़ नृत्य
यह आत्मिक क्षुधा में विह्वल, मायके स्मृति में इवी हई नायिकाओं का हृदय विदारक गतिमय नृत्य है.

पसिवारी नृत्य
पर्वत शृंखलाओं में घास काटती हुई समवयस्काओं का नत्य, जो गीतों के स्वरों और दाथी के 'छमणाट' में चलता है,

चांचरी नृत्य
यह गढ़वाल-अल्मोड़ा दोनों क्षेत्रों का समान चहेता नृत्य है. नर्तक एवं नर्तकियों का अर्द्धगोलाकार एवं गोलाकार
नृत्य, जिसमें हाथ कमर के इर्द-गिर्द होते हैं.

बौछड़ों
पंजाब के भांगड़ा की तरह यह नृत्य शिव-भक्ति के रूप में किया जाता है.

बी-सरेला
देवर-भाभी के प्रेम के आधार पर गीतमय नृत्य है.

छोपती नृत्य
लास्य कोटि एवं हिमाचली लावती-बगावली नृत्य के समान अत्यन्त आकर्षक नृत्य है.

छपेली नृत्य
प्रेम एवं आकर्षण का नृत्य है.

तलबार नृत्य
इस नृत्य को 'चौलिया' नृत्य भी कहते हैं. ढोल दमाऊँ के स्वरों में तलवार चलाने का स्त्री-पुरुषों का यह नृत्य वीर भावना से ओत-प्रोत है.

केदारा नृत्य
यह ढोल दमाऊँ के कठोर वादय स्वरों में विकट तलवार एवं लाटी संचालन का ताण्डव शैली का अद्भुत नृत्य है.

सरांव (सरी) नृत्य
युद्ध कौशल का अनोखा नृत्य है. पहले ठकुरी राजा दूसरे ठकुरी राजा की पुत्री का अपहरण करने जाते थे.
विवाह न होने पर युद्ध हो जाता था. इडियाकोट का क्षेत्र इस नृत्य के लिए प्रसिद्ध है.

पुपती नृत्य
ममता एवं दुःख विषयक यह नूत्य स्वच्छन्द वातावरण में स्त्रियों के द्वारा किया जाता है.

फौफटी नृत्य
पंजाब के 'कीकी' या 'कीक्ली' नृत्य के समान यह नृत्य गढ़वाली कुमारियों का गीति- प्रधान नृत्य है.

बनजारा नृत्य
मध्यकालीन विनोद नृत्य की तरह यह समवयस्का ननद- भाभी का चिढ़ाने वाली विनोदी नृत्य है.

जांत्रा नृत्य
पर्व विशेषों पर स्त्रियों द्वारा किया गया यह नृत्य है, जिसमें किसी पर्व या देवता का वर्णन मुख्य होता है. बंगाल
का 'जात्रा' नृत्य इसी के समान है.

झोंडा नृत्य
प्रेमासक्ति का नृत्य है.

बाजूबंद नृत्य
प्रेम-संवाद का गीतात्मक नृत्य है.

भेला नृत्य
दीपावली (बग्वाल) की रात में तथा हरिबोधिनी (इगास) की रात में गढ़वाल के गाँवों में यह नृत्योत्सव मनाया जाता है.

खुसौड़ा नृत्य
गति से मौज में किया गया यह नृत्य है. वाद्य स्वरों में कभी भी यह नृत्य किया जाता है.

चोलिया नृत्य
चोलिया नृत्य के साथ कोई भी गीत नहीं गाया जाता है.इसमें नर्तक राजपूत वीरों के लड़ाई के दृश्य हाथ में तलवार
एवं ढाल लेकर दर्शाते हैं.

कतिपय विशिष्ट क्षेत्रों के नृत्य
उत्तरी गढ़वाल (अब चमोली जिला) कुछ मौजी जातियाँ (भाटिया गढ़वाली) जो हमेशा वर्फीले क्षेत्र में रहती हैं. अतः उनके नृत्यों में कुछ भौगोलिक एवं सामाजिक कारणों से मिन्नता आ गई है. इनके नृत्य लोक रक्षा, आनन्द, प्रेम तथा मित्रता के द्योतक हैं. इनके प्रमुख नृत्य-यड़िया, गनगना, पौणा, चंचरी और याक नृत्य हैं.

गद्दी एवं जाड जातियों के नृत्य
 गढ़वाल में ऊँचाइयों पर रहने वाली इन जातियों का जीवन स्वच्छन्द होता है. इनके नृत्यों में भेड़-बकरियों का वही स्थान होता है जो मनुष्य का. इनके नृत्य इतने आकर्षक होते हैं जैसे प्रतीत होता है कि अप्सराएँ धरती पर उतर आई हों. भारत सरकार ने 1959 ई. में इन्हें पुरस्कृत कर सम्मानित किया था. इनके नृत्य हैं-झंझोरी, वणजार,देखणी,  तथा बाँसुरिया आदि.

कुमाऊंनी गोठिए (गोष्ठ वाले) के नृत्य
फुकन्या ये लोग जंगलों में गाय, भैंसों के साथ ही जंगल में छप्पर डालकर रहते हैं. ये लोग रात में नाच-गाकर अपना
समय व्यतीत करते हैं. इनके नृत्यों में सिहवा-विध्वा (कृष्ण के भाई), घटकरण तथा हरुचामू (गोठियों का देवता) के
आख्यान होते हैं. नृत्यों में अभिनय अधिक होता है. 

किरात एवं किन्नर जातियों के नृत्य
पुष्प तोया मालिनी के तटों पर यह जातियाँ निवास करती हैं, जो अब पूर्णतः गढ़वाली जीवन में ढल चुकी हैं.फूयोंली, हिलांसी, कफ्फू आदि इनके नृत्य हैं.
उपर्युक्त नृत्यों के अतिरिक्त पशुचारक पह्दियों के झंझोटी, प्रेमजी, बणजारा आदि भी नृत्य दर्शकों को आकर्षित
करते हैं.

व्यावसायिक नृत्य
औजी, बद्दी, मिरासी, ठक्की एवं हुड़क्या व्यावसायिक जातियाँ अपने कला का प्रदर्शन करके अपनी आजीविका
कमाते हैं. औजी 'ढोल सागर' के ज्ञाता हैं. वड़ी जातियाँ नाच-गाकर ही अपना जीवन चलाती हैं, पहले गढ़वाल के
ठकुरी राजाओं का आश्रय प्राप्त था, लेकिन आजकल बदहाली की स्थिति में है. इनकी कला में भारत नाट्यम,
कुचिपुड़ी एवं मणिपुरी नृत्य शैलियों के दर्शन होते हैं. 
गढ़वाल, कुमाऊँ में ये सभी जातियाँ उच्वकोटि के शिल्पकार हैं. इनके मुख्य नृत्य इस प्रकार हैं-

थाली नृत्य
वाद्दी ढोलक व सारंगी वजाकर गीत की प्रथम पंक्ति गाता है, उसकी पत्नी थालियों के साथ विभिन्न मुद्रा में नृत्य प्रस्तुत करती है.

सरौं नृत्य
औजियो का यह नृत्य है.

चैती पसारा
चैत के सारे महीने व्यावसायिक जातियों के लोग अपने- अपने ठाकुरों के घरों के आगे गाते तथा नाचते हैं.

कुलाचार
कुल प्रशंसा गाते हुए 'हुड़क्का' स्वयं नृत्य भी करता है.

लांग नृत्य
मध्यकालीन लांग नृत्य के समान है. यह नृत्य वाददी करते हैं.

शिव-पार्वती नृत्य
बाद्दी या मिरासी शिव के कथानक को लेकर पार्वती के जन्म से लेकर विवाह, संयोग, वियोग एवं पुत्रोत्पत्ति आदि
अवस्थाओं का नृत्य करते हैं.

नट-नटी नृत्य
जन समाज मनोरंजनार्थ ये लोग नट -नटी का हास्यपूर्ण प्रसंग अपने नृत्यों में रखते हैं. ऐसे नृत्यों का आयोजन मेलों
में अधिक होता है.

दीपक नृत्य
प्रारम्भ में यह नृत्य थाली नृत्य के समान ही होता है. अन्त में दीये थाल में सजाकर नर्तकी नृत्य करती है.

सुई नृत्य
अनेक आंगिक अभिनय दिखाने के बाद नर्तकी अपने ओठों से सुई उठाकर अपना कमाल दिखाती है.

साँप नृत्य
साँप की तरह रेंगती हुई नर्तकी, सांप पर छछंदर का भावमय नृत्य प्रस्तुत करती है. उत्तराखण्ड का गढ़वाल परिक्षेत्र विविध लोक कलाओं, नृत्यों एवं गीतों से भरा पड़ा है. आश्रय न मिलने के कारण इनका लोप हो रहा है. आवश्यकता इस वात की है कि इसको जीवन्त रखा जाये, ताकि यह कला अक्षुण्ण रह सके.