उत्तराखण्ड का कार्तिकेयपुर राजवंश/Kartikeyapur Dynasty of Uttarakhand |
उत्तराखण्ड काकार्तिकेयपुर राजवंश 700 ई0-1050 ई०
कार्तिकेयपुर राजवंश उत्तराखण्ड का प्रथम ऐतिहासिक राजवंश माना जाता है, इस वंश के प्रथम तीन परिवारों के 14 नरेशों ने 300 वर्ष तक शासन किया था ।कार्तिकेयपुर राजवंश की प्रारम्भिक राजधानी जोशीमठ दक्षिण में कार्तिकेयपुर नामक स्थान पर थी
कार्तिकेयपुर शासकों दूसरी राजधानी अल्मोडा के कत्यूर घाटी में बैजनाथ के पास बेद्यनाथ-कार्तिकेयपुर में बनायी गयी
कार्तिकेयपुर राजवंश के अभी तक 9 अभिलेख प्राप्त हुए, जिसकी लिपि कुटिला थी
कार्तिकेयपुर वंश से सम्बन्धित ताम्र पत्र लेख बागेश्वर, पांडुकेश्वर, कंडारा व बैजनाथ से मिले
इन अभिलेखों में प्रमुख ललित सूर देव का पांडुकेश्वर ताम्रपात्र व
भूदेव का बागेश्वर शिलालेख व बैजनाथ के शिलालेख प्रमुख है
एटकिंसन ने सर्वप्रथम कार्तिकेयपुर राजाओं के लिए कत्यूरी शब्द का प्रयोग किया
प्रथम परिवार
- 700 ई0 में कार्तिकेयपुर वंश का संस्थापक बसन्तदेव था • बसन्तदेव परमभद्धारक महाराजाधिराज और परमेश्वर की उपाधि धारण की थी
- बागेश्वर लेख के अनुसार बसन्तदेव ने एक मन्दिर को स्वर्णेस्वर नामक ग्राम दान दिया
- जोशीमठ में नृसिंह मंदिर का निर्माण बसन्त देव ने करवाया
- बागेश्वर शिलालेख में बसन्तदेव की पत्नी का नाम राज नारायणी देवी उत्कीर्ण है
- कश्मीरी इतिहासकार कल्हण की राजतरंगिणी पुस्तक में कश्मीरी
- शासक ललितादित्य मुक्तापीड़ द्वारा गढ़वाल क्षेत्र का जीतने का उल्लेख हैं
- बसन्तदेव के बाद खर्पर देव राजा बना
- खर्पर देव पत्नी का नाम कल्याणी देवी था
- खर्परदेव कन्नौज के राजा यशोवर्मन के समकालीन था
- खर्परदेव का पुत्र कल्याण राज था।
- कल्याण राज की पत्नी महारानी लद्धादेवी थी
- बालेश्वर लेख अनुसार खर्परदेव वंश का अन्तिम शासक त्रिभुवन राज था
द्वितीय परिवार
- नालंदा अभिलेख अनुसार बंगाल के पाल शासक धर्मपाल ने गढ़वाल पर आक्रमण किया निम्बर था
- कार्तिकेयपुर राज्य में द्वितीय परिवार का संस्थापक
- निम्बर शैव धर्म का अनुयायी था
- राजा निम्बर की रानी का नाम नाथू देवी था
- निम्बर के बाद उसका पुत्र इष्टगण शासक बना
- इष्टगण की पत्नी का नाम वेगादेवी था
- इष्टगण ने समस्त राज्य को एक सूत्र में बांधने का प्रयास किया
- इष्टगण ने जागेश्वर में नवदुर्गा, लकुलीश तथा नटराज के मन्दिर बनवाए थे
- इष्टगण का पुत्र ललितशूर देव था
- ललितसूर देव लगभग 832 ई0 में सिंहासन पर बैठा था
- ललित सूर देव के शासन के 21वें व 22वें वर्ष के दो ताम्रपात्र व प्राप्त हुए
- ललितसूर देव का पांडुकेश्वर ताम्रपत्र में मग्न धरती उद्धार के लिए बराहवतार के समान बताया गया
- ललितशूर देव सबसे प्रतापी शासक था
- सर्वाधिक ताम्रपात्र ललितसूर देव के प्राप्त हुए
- ललितशूर देव की दो पत्नियां लया देवी, तथा सामा देवी थी
- सामा देवी ने बैजनाथ में नारायण मंदिर बनवाया था
- बैजनाथ मंदिर का निर्माण ललित पुत्र भूदेव ने किया
- भूदेव बौद्ध धर्म का विरोधी था इसलिए बुद्धश्रमण शत्रु उपाधि | भूदेव की थी
तृतीय परिवार
- तृतीय परिवार सलोड़ादित्या वंश था
- सलोडादित्य वंश की स्थापना इच्छरदेव ने की
- इच्छर देव की पत्नी का नाम सिन्धु देवी था
- इच्छरदेव के बाद क्रमशः देसतदेव व पद्मदेव शासक बने।
- सलोड़ादित्य वंश का अन्तिम शासक सुभिक्षराजदेव था
- कार्तिकेयपुर का अंतिम शासक सुभिक्षराज देव 14 वां शासक था
- सुभिक्षराज देव ने अपनी राजधानी कार्तिकेयपुर के उपखंड में सुभिक्षपुर बनायी
वैद्यनाथ-कार्तिकेयपुर
- सुभिक्षराज देव के किसी वंशज ने अल्मोड़ा की गोमती घाटी में राजधानी बनायी
- बैजनाथ शिलालेखों में वैद्यनाथ का नाम- कार्तिकेयपुर मिलता है।
- इसे हम कार्तिकेयपुर वंश के चतुर्थ परिवार कह सकते है
- बैजनाथ लेखो में इस वंश शासको के नाम क्रमशः लखनपाल देव, इन्द्रपाल देव, व त्रिभुवनपाल देव, मिलता है
गुरु शंकराचार्य
- कार्तिकेयपुर राजवंश के शासन काल के समय में आदि गुरु शंकराचार्य का आगमन हुआ था • आदि गुरू शंकराचार्य ने जब 820 ई0 में केदारनाथ में देह त्याग किया था उस समय शंकराचार्य की आयु 32 वर्ष थी।
- शंकराचार्य जी कार्तिकेयपुर शासक ईष्टगण के समय उत्तराखण्ड में आए थे
- आदि गुरू शंकराचार्य अद्वैतवाद के दार्शनिक थे
- आदि गुरू शंकराचार्य पूरे भारत में चार मठों की स्थापना की थी ज्योर्तिमठ, पुरी, शृंगेरी, द्वारिका
कार्तिकेयपुर राज्य प्रशासन व्यवस्था
- लक्ष्मीदत जोशी के अनुसार कार्तिकेयपुर राजा मूलतः अयोध्या से आये थे
- बद्रीदत पाण्डे कार्तिकेयपुर राजाओं को सूर्यवंशी मानते हैं
- इस वंश के शासकों की राजभाषा संस्कृत, एवं लोकभाषा पाली थी
- कार्तिकेयपुर राजाओं के लोकहित कार्यों के कारण कुमाऊँ में आज भी प्रचलित है कि कार्तिकेयपुर वंश के अवसान पर सूर्यास्त हो गया और रात्रि हो गयी
- कत्यूरी प्रशासन में भूमि मापन नामक अधिकारी प्रमवातार था कत्यूरी कालीन मंदिर दो प्रकार के है
- 1 - छत्रयुक्त
- 2- शिखर युक्त मंदिर
- छत्रयुक्त प्रकार के मंदिरों को पैगोडा प्रकार के मंदिर भी कहतें हैं
- कत्यूरी वंश पतन का कारण अत्याचारी शासन व बाहरी आक्रमण था कत्यूरी प्रशासन में तहसील स्तर की प्रशासनिक ईकाई को कर्मान्त | कहा जाता है
कार्तिकेयपुर वंश में राज पदाधिकारी
- प्रान्तपाल- सीमाओं की सुरक्षा भार
- घट्टपाल- गिरीद्वारों के रक्षक
- वर्मपाल- व्यक्तियों पर निगरानी
- नरपति- नदीघाटों पर आगमन सुविधा एवं कर वसूली कार्तिकेयपुर सेना चार भागों में विभाजित थी
- पदातिक (पैदल सेना)- नायक गौल्मिक
- अश्वारोही- सर्वोच्च नायक अश्वबलाधिकृत
- गजारोही- नायक हस्तिबलाधिकृत
- उष्ट्रारोही- नायक ऊष्ट्रबलाधिकृत
- अपराधियों को पकड़ने वाला सर्वोच्च अधिकारी को दोषपराधिक कहा जाता था
- पुलिस विभाग के बड़े अधिकारी दण्डपाशिक, व दण्डनायक तथा महादण्डनायक थे
- गुप्तचर अधिकारी दुःसाध्यसाधनिक था
कार्तिकेयपुर वंश में आय स्रोत
- कत्यूरी शासन में आय के साधन कृषि एवं वन थे
- क्षेत्रपाल राज्य के कृषि की उन्नति का ध्यान रखता था
- उपचारिक अधिकारी भूमि के अभिलेख रखता था
- खण्डपति नामक अधिकारी खनिज व वनों की रक्षा करता था
- करो की वसूली के लिए भोगपति व शौल्किक नामक अधिकारियों का वर्णन मिलता है
- भाट व चाट नामक अधिकारी प्रजा से बिष्टी या बेगार लेते थे पशुओं से दुग्धादि निकालने का कार्य आभीर करते थे
- भूमि की नाप उसमें बोए जाने वाले बीज के अनुसार होती थी। जिन्हें द्रोणबापम व नालीबापम कहा जाता था
- द्रोण को 32 सेर या 16 नाली बराबर माना जाता था
- खारीवाप को 20 द्रोण के बराबर बताया गया है
कत्यूरी शासन-प्रशासन
- कत्यूरी राज्य प्रांतों में विभाजित था जिसका शासन उपरिक या राज्यपाल चलाता था
- कत्यूरी राज्य में प्रांतो को विषय या जिलों में बांटा गया।
- चार विषयों का पता चलता है कार्तिकेयपुर, टंकणपुर, अन्तराग, एशाल विषय
मध्यकाल का कत्यूरी शासन
- इस शासन की जानकारी स्थानीय लोकगाथाओं व जागर प्रथा से मिलती है।
- सीरा शाखा इनकी एक ही साथ कई शाखाएं जैसे कत्यूर-बैजनाथ शाखा, पाली-पछांऊ शाखा, असकोट शाखा, डोटी शाखा,
- इनमें कत्यूर के आसंतिदेव वंश, असकोट के रजबार व डोटी के मल्ल प्रसिद्ध थे
- कत्यूर राज्य में असांतिदेव ने असांतिदेव राजवंश की स्थापना की • असांतिदेव राजवंश की प्रथम राजधानी जोशीमठ थी।
- अंसातिदेव ने अपनी दूसरी राजधानी कत्यूर राज्य रणचूलाकोट में बनायी थी
- कत्यूरी वंश का अन्तिम शासक ब्रह्मदेव था,
- ब्रहादेव को जागरों में वीरमदेव कहा गया
- जियारानी की लोकगाथा के अनुसार 1398 ई0 में तैमूर लंग ने हरिद्वार पर आक्रमण किया, ब्रह्मदेव ने उसका सामना किया और मारा गया था
- कत्यूरी गाथाओं में प्रीतमदेव या पिथौराशाही और धामदेव या
- दुलाशाही का वर्णन भी मिलता है।
- प्रीतमदेव को राजा पिथौरा भी कहा जाता है, इन्हें पिथौरागढ़ का संस्थापक भी माना जाता है
- प्रीतमदेव की छोटी रानी जियारानी थी
- जियारानी का उतराधिकारी धामदेव था, जिसे दुलाशाही कहा जाता है
- धामदेव के दो पुत्र मालूशाही व लाड़म साही थे
- बैराठ या चौखुटिया के राजा मालूशाही व दारमा की शौक्याणी राजुला की प्रणय गाथाएं प्रसिद्ध है
- धामदेव के बाद ब्रह्मदेव का नाम आता है, जिसे अंतिम कत्यूरी शासक माना जाता है
उत्तराखण्ड में बहुराजकता युग
- 1191 ई0 नेपाल राजा अशोकचल्ल ने कत्यूरी राज्य के कुछ भागों पर अधिकार कर लिया था
- अशोकचल्ल के बारे में गोपेश्वर त्रिशूल लेख में जानकारी मिलती है
- बागेश्वर ताम्र लेख के अनुसार 1223 ई0 में दुलू या नेपाल शासक
- क्राच्लदेव ने कत्यूरी राज्य अपने अधिकार में ले लिया था
- एकचक्रा या चकराता में बहुबाण वंश का शासन था, इसके सातराजाओं का वर्णन मिलता है
- सिरमौर प्रदेश में राणा देवपाल का शासन था
- राणा देवपाल के बारे में जानकारी मिथुन-ए-सिराज की पुस्तक एवं तबकात-ए-नासिरी में मिलता है।
- सिराज के अनुसार देवपाल ने बलबन के विद्रोहियों को आश्रय दिया था
- गंगोलीहाट में मणिकोटी राजवंश शासन कर रहा था
- अस्कोट के ठकुराई शासकों को रजबार कहा जाता था
- अस्कोट में पाल वंश का शासन रहा
- पाल वंश का संस्थापक नागमल्ल था
- सीरा-डोटी की राजधानी सीराकोट की थी
- सीरा में 16 मल्ल राजाओं में बारे में पता चलता है • राम सिंह अनुसार रूद्रचंद ने सीरा के हरिमल्ल को हराकर सीरा अपने अधिकार में लिया
- लोहाघाट के पास सुई राज्य की स्थापना ब्रह्मदेव द्वारा की गयी जो कत्यूरी शासक था.
मुस्लिम शासकों का आक्रमण
- मुहम्मद बिन तुगलक के कराजल पर्वत अभियान के बारे में जानकारी बरनी की पुस्तक तारीख-ए-फिरोजशाही इब्नबतूता की पुस्तक रेहला से मिलती है
- इतिहासकार कराजल को कुमाऊँ प्रदेश मानते है
- 1398 ई0 में तैमूर लंग ने हरिद्वार के आस-पास क्षेत्र पर आक्रमण किया था, तैमूर की आत्मकथा मुलफूजात-इ-तिमूरी के अनुसार प्रथम युद्ध गंगाद्वार में बहुरूज के साथ हुआ
- एंटकिसन ने बहुरूज को ब्रह्मदेव कहा था
- तैमूर लंग का दूसरा युद्ध सिरमौर राजा रत्नसेन के साथ हुआ था
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