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उत्तराखंड में कृषि अर्थव्यवस्था, प्रमुख फसतें एवं पशुपालन |Agricultural economy, major crops and animal husbandry in Uttarakhand

 
उत्तराखंड में  कृषि अर्थव्यवस्था, प्रमुख फसतें एवं पशुपालन |Agricultural economy, major crops and animal husbandry in Uttarakhand



इस प्रदेश का 64-79 प्रतिशत भू-भाग वनों से तथा लगभग 16:5 प्रतिशत भू-भाग पर बर्फ से ढका है. चरागाहबाग व झाड़ियाँ कुल भूमि के 7-60 भू-भाग को घेरे हुए हैं. ऊसर व खेती अयोग्य भूमि का विस्तार 4-46 प्रतिशत भूमि पर है. कृषि के अतिरिक्त अन्य उपयोग में लाई गई कुल भूमि का 2-04 प्रतिशत है. पर्वतीय प्रदेश में कृषि भूमि का विस्तार कुल भूमि के 13-51 प्रतिशत भू-भाग पर है. यदि कृषि योग्य बेकार भूमि को भी कृषि के अन्तर्गत ले आया जाए, तो कृषि भूमि का क्षेत्रफल कुल भूमि का 20-07 प्रतिशत हो जाएगा. यहाँ पर गढ़वाल हिमालय की अपेक्षा  कुमाऊँ हिमालय में कृषित भूमि का अधिक विस्तार पाया  जाता है. यहाँ पर समय के साथ दोहरी फसल का क्षेत्र बढ़ता  जा रहा है. इस समय 59-65 प्रतिशत कृषित भूमि से वर्ष में  दो फसलें ली जाती हैं.

                     फसल प्रारूप पर दो बातो का प्रभाव पड़ता है. एक तो प्राकृतिक विशेषताओं का; जैसे-धरातल से ऊँचाई, जलवायु  व मिट्टियों की उपजाऊ शक्ति तथा दूसरी ओर आर्थिक व सामाजिक व्यवस्थाओं का प्रभाव पड़ता है. जिस फसल से अधिक आर्थिक लाभ प्राप्त होता है, उसका उत्पादन भी  अधिकता से किया जाता है. इस प्रदेश की घाटियों के कृषि  भूमि उपयोग को तीन तरह से रखा जा सकता है-
 
  • कातिल या खील भूमि- इस भूमि पर पुराने कृषि यन्त्रों, फावड़ा, कुदाली से कृषि की जाती है. पाँच वर्षों में तीन फसलें अदल-बदलकर बोई जाती हैं.
  • अपरान भूमि-सीढ़ीदार असिंचित भूमि पर की जाने वाली कृषि भूमि इसमें शामिल है. इस पर दो वर्षों में तीन फसलें प्राप्त की जाती हैं. इन फसलों को अदल-बदलकर बोने के लिए कृषक भूमि को छोटे-छोटे टुकड़ों में बाँट देते हैं.
  • तालान भूमि -यह निम्न भू-भागों पर पाई जाने वाली सिंचित भूमि है. इस पर चावल का उत्पादन कियाजाता है. यहाँ वर्ष में दो फसलें प्राप्त की जाती हैं. 
 
प्रमुख फसलें
इस प्रदेश में फसल की गहनता 159-22 प्रतिशत पाई जाती है. सकल कृषि भूमि का 59-90 प्रतिशत, खरीफ 39-92 प्रतिशत, रवी व 0-18 प्रतिशत जायद फसलों के अन्तर्गत वितरित पाया जाता है. सकल कृषित भूमि का केवल 13-5 प्रतिशत भू-भाग सिंचाई की सुविधाएँ रखता है. नहरें सिंचाई का प्रमुख साधन हैं, जो कुल सिंचित भूमि का 57-19 प्रतिशत भाग सींचती हैं, जबकि नलकूप व कुओं द्वारा 22-54 तथा अन्य साधनों द्वारा 20-27 प्रतिशत भूमि सींची जाती है. गढ़वाल हिमालय की अपेक्षा कुमाऊँ हिमालय में सिंचित भूमि का प्रतिशत अधिक पाया जाता है. नैनीताल व देहरादून में तो यह प्रतिशत काफी अधिक क्रमशः 53-7 40-4 प्रतिशत मिलता है. चमोली में यह सबसे कम 6-4 प्रतिशत मिलता है.
 
गेहूँ

यह सुदसे महत्वपूर्ण फसल है, जो सकल कृषि भूमि के 43 प्रतिशत अर्थात् 4-2 लाख हेक्टेयर भूमि पर उगाया जाता है. इसका प्रति -हेक्टेयर औसत उत्पादन 1300 किग्रा. पाया जाता है. देहरादून, उत्तरकाशी, पिथौरागढ़, अल्मोड़ा. टिहरी गढ़वाल, गढ़वाल अधिक महत्वपूर्ण है, नैनीताल के अलावा सभी जिलों की प्रथम क्रम की फसल है.
 
चावल
दूसरी सबसे महत्वपूर्ण फसल है.कुमाऊँ मण्डल में इसका महत्व अधिक है. नैनीताल जिले की प्रथम क्रम की फसल है. यहाँ 32:5 प्रतिशत सकल कृषित भूमि पर इसका उत्पादन किया जाता है. अन्य सभी जिलों में यह द्वितीय क्रम की फसल है, जो सकल कृषित भूमि का 33-2 प्रतिशत है. यहाँ पर चावल का प्रति हेक्टेयर उत्पादन 1966 किग्रा है,
 
 
 गन्ना
यहाँ की तीसरी महत्वपूर्ण फसल है. देहरादून व नैनीताल जिलों में इसका उत्पादन सबसे अधिक होता है यहाँ पर कुल कृषित भूमि के क्रमशः 74 12.2 प्रतिशत भू-भाग पर यह उगाया जाता है. सम्पूर्ण प्रदेश की 104987 हेक्टेयर भूमि पर इसका उत्पादन किया जाता है, जो कुल कृषित भूमि का 625 प्रतिशत है.
 
    मक्का
तीसरा महत्वपूर्ण खाद्यान्न है. 2011-12 में यह 28.038 हेक्टेयर भूमि पर उगाया जाता है, जो कुल कृषित भूमि का 14-66 प्रतिशत है. देहरादून व पियौरागढ़ जिले महत्वपूर्ण हैं. देहरादून की 13-8 प्रतिशत कृषित भूमि पर मक्का का उत्पादन होता है. प्रति हेक्टेयर उत्पादन 1288 किग्रा है. 
 
    दालें
यहाँ की कृषि में उल्लेखनीय स्थान रखती हैं. रबी मौसम की दालें, खरीफ मौसम की दालों की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण हैं. अरहर, मसूर, उड़द, मूँग व मोठ प्रमुख दालें हैं. 2011-12 में दालों का उत्पादन 55.690 हेक्टेयर भूमि पर होता है, जो सकल कृषि क्षेत्र का 815 प्रतिशत है. नैनीताल, देहरादून, उत्तरकाशी व टेहरी गढ़वाल जिले महत्वपूर्ण हैं. जी का उत्पादन यहाँ पर 22,508 हेक्टेयर भूमि पर किया जाता है, जो सकल कृषि क्षेत्र का 12-64 प्रतिशत भू-भाग है. अल्मोड़ा, पियौरागढ़, गढ़वाल, टिहरी गढ़वाल व चमोली जिलों में यह तृतीय क्रम की फसल है. प्रति हेक्टेयर उत्पादन 789 किग्रा होता है,
 
    तिलहन आदि
खरीफ मौसम की महत्वपूर्ण फसल है, जो 27,386 हेक्टेयर भूमि पर उगायी जाती है, जो कुल कृषित भूमि का 3-25 प्रतिशत है. तिल, मूँगफली, सरसों व अलसी प्रमुख तिलहन हैं. उत्तरकाशी व टिहरी गढ़वाल महत्वपूर्ण जिले हैं. नैनीताल, गढ़वाल व चमोली में इसका उत्पादन उल्लेखनीय है. आलू लगभग सभी जिलों में उगाया जाता है, लेकिन अल्मोड़ा व देहरादून जिले अधिक महत्वपूर्ण हैं. यह 7984 हेक्टेयर भूमि अर्थात् 098 प्रतिशत भू -भाग पर उगायी जाती है. नैनीताल व पियौरागढ़ अन्य उल्लेखनीय जिले हैं अन्य प्रमुख फसलों में तम्बाकू, ज्वार, बाजरा, चाव शामिल हैं.
 
    चाय
नैनीताल, गढ़वाल, अल्मोड़ा एवं देहरादून चाय उत्पादन के लिए प्रसिद्ध हैं. चाय उष्ण कटिवन्ध व उप- उष्ण कटिबन्ध के क्षेत्रों में उगाई जाने वाली प्रमुख फसल है.
 
    नीबू
नैनीताल एवं अल्मोड़ा में नीबू प्रमुख रूप से उगाया जाता है.
 
    सन्तरा
नैनीताल, अल्मोड़ा एवं देहरादून.
 
    सेब
नैनीताल एवं अल्मोड़ा.
 
    लीची
देहरादून.
 
    कृषि एवं सिंचाई
कृषि के लिए भूमि वहुत सीमित है. यह इस तथ्य से प्रकट होता है कि प्रतिकृषक शुद्ध वोया क्षेत्रफल वर्ष 1995-
96 में मात्र 0-53 है. अधिकांश जोतें (75 प्रतिशत) सीमान्त  कृषकों की हैं. प्रदेश की फसल गहनता वर्ष 1995-96 में 162-80 प्रतिशत थी, जो फसल की सघनता 148-24 प्रतिशत से अधिक है. उत्तराखण्ड में कृषि उत्पादकता कम होने का मुख्य कारण यहाँ सिंचाई सुविधाओं की कमी है जिसके फलस्वरूप रासायनिक खादों का कम प्रयोग होता है. प्रदेश में शुद्ध सिंचित क्षेत्रफल 5.61,733 हेक्टेयर है. उत्तराखण्ड में फसल चक्र अधिक मूल्य वाली फसलों की ओर वढ़ रहा है. उत्तराखण्ड में अधिक मूल्य वाली फसलों; जैसे-फलोद्यान,पुण्पोद्यान, जड़ी-बूटी, मसाले, बीज तथा बेमीसमी सब्जियों आदि की सम्भावनाएँ अधिक हैं.
 
    भूमि की उपयोगिता
प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्र में वर्ष 1995-96 में कुल प्रतिवेदित क्षेत्र 53-62 लाख हेक्टेयर था, जिसमें से बोया गया वास्तविक क्षेत्रफल केवल 6-66 लाख हेक्टेयर था. वर्ष 2011-12 में वास्तविक सिंचित क्षेत्र 5,54,837 हेक्टेयर था. औसतन लगभग 12 प्रतिशत क्षेत्र ही कृषि के अन्तर्गत है, इस छोटे से कृषि क्षेत्र के ज्यादातर भाग में सिंचाई सुविधाओं की उपलब्धता क्षीण है. इन सब सीमाओं के बावजूद भी क्षेत्र के लोगों का प्रमुख व्यवसाय कृषि है तथा इसका सुदृढ़ीकरण आवश्यक है.
 
    जोतों का आकार
उत्तराखण्ड प्रदेश में व्यक्तियों का मुख्य व्यवसाय कृषि है. कृषि योग्य भूमि यहुत सीमित है तथा कुल प्रतिवेदित क्षेत्र का लगभग 12 प्रतिशत है. कृषि कार्यों में ही अधिकतम कर्मकार संलग्न है. खेती की संरचना कठिन है. अतः कृषि कार्यों के परिप्रेक्य में कृषि जोत के आकार एवं स्वरूप की महत्वपूर्ण भूमिका है. इस प्रदेश में लगभग 50 प्रतिशत जोते 0-5 हेक्टेयर से कम होने के कारण उप सीमान्त श्रेणी की हैं एवं 21.44% जोतें 0-5 हेक्टेयर से 1 हेक्टेयर के बीच हैं. इस प्रकार तीन- चौथाई जोतें सीमान्त जोते हैं. सीमान्त जोतों का औसत आकार 0-37 हेक्टेयर है, जोतों की इस सीमान्तता के कारण क्षेत्र में विद्यमान फसल चक्र आर्थिक रूप से लाभकारी नहीं रह गए हैं. क्षेत्र की विभिन्न आकार की जोतों की स्थिति अग्रवत् हैं-
 
 
    कर्मकारों का आर्थिक वर्गीकरण
उत्तराखण्ड प्रदेश की कुल जनसंख्या में से कुल कर्मकारों की जनसंख्या 41-90 प्रतिशत है तथा शेष 58-10 प्रतिशत अकर्मकार हैं. कुल कर्मकारों से 86-75% मुख्य कर्मकार तथा 13-25% सीमान्त कर्मकार हैं, में से 58-13% कृषक, 6-40% कृषि श्रमिक, 0-86% घरेलू उ्योग में कार्यरतू तथा शेष 34-619% अन्य कर्मकार हैं. 
 
महिलाओं की आर्थिक स्थिति
इस प्रदेश में कुल महिला जनसंख्या का 35-20 प्रतिशत महिला श्रमिक हैं, जोकि राज्य के औसत से अधिक हैं. कुल कर्मकारों का 41-01 प्रतिशत महिला कर्मकार हैं.
 
पशुपालन
गाय और भैंसें दुग्ध का मुख्य ग्रोत हैं. नर पशुओं को खेत जोतने और माल ढोने के काम में लाया जाता है, कुछ को प्रजनन हेतु चुना जाता है. पहाड़ों के पशु मैदानी क्षेत्र के पशुओं से गढ़न में भिन्न होते हैं और विशेषकर आकार में छोटे होते हैं. 'शशक विकास कार्यक्रम' जो उत्तम किस्म का ऊन उपलब्ध कराने में सहयोगी है.
        भेड़ और बकरियाँ मुख्यतः माँस, खाल और ऊन के लिए पाली जाती हैं, यद्यपि उनका दूध भी प्रयोग में लाया जाता है. भोटिया नस्ल की बकरियाँ बलवान और वड़े बालों वाली होती हैं, इन्हें सामान ढोने के लिए भी प्रयोग किया जाता है. पहाड़ का कुत्ता जो भोटिया लोग पालते हैं, शक्ति, वफादारी और चरवाहों के लिए पशुओं की देख-रेख करने की उपयोगिता के लिए प्रसिद्ध है.

        प्रतिव्यक्ति पशुधन तथा दुधारू पशुओं की संख्या उत्तर प्रदेश के औसत की अपेक्षा उत्तराखण्ड में अधिक है. वर्ष 2003 में पशुओं की संख्या 4943329 थी, उत्तराखण्ड में पशुओं का भूमि पर दबाव अधिक है जिसके कारण यहाँ के पशुओं की गुणवत्ता अपेक्षाकृत अच्छी नहीं है.