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उत्तराखंड का उत्तर प्रदेश से अलग होने के संघर्ष की पूरी कहानी एवं विभिन आन्दोलन | History of separate Uttarakhand conflict |पृथक उत्तराखंड के संघर्ष का इतिहास| |
उत्तराखण्ड
आन्दोलन सिर्फ एक राज्य की जरूरत की अभिव्यक्ति नहीं था, वबल्कि इसके साथ एक बेहतर समाज और जुझारू मनुष्य
वनने और बनाने का संकल्प भी अनिवार्य रूप से जुड़ा था. यह एक विश्वसनीय व टिकाऊ
सामाजिक आर्थिक व्यवस्था के निर्माण की कठिन लड़ाई थी, उत्तराखण्ड राज्य के लिए आन्दोलन एक क्षेत्रीय
आन्दोलन था, लेकिन इसने राष्ट्रीय स्तर पर
अपनी पहचान वना ली थी.
उत्तराखण्ड
राज्य आन्दोलन एक पुराना आन्दोलन है जिसकी हल्की-सी शुरूआत 1897 में हो गई
थी. इस आन्दोलन का
प्रारम्भ कुमाऊँ से हुआ था. 1815 की संधि के बाद जब कुमाऊँ पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया था, तो उसकी विशिष्ट राजनीतिक पहचान समाप्त हो गयी थी, जबकि गढ़वाल राजतंत्रीय व्यवस्था के वने रहने के
कारण उसका पृथक्
अस्तित्व बना रहा. महारानी विक्टोरिया को प्रस्तुत वधाई-पत्र में अल्मोड़ा के प्रमुख ब्राह्मण पण्डित हरी राम पाण्डे, ज्वाला दत्त जोशी, रायबहादुर बद्रीदत्त जोशी ने कुमाऊँ वासियों की ओर से महारानी को याद दिलाया
कि "कुमाऊँ के
लोगों को जीता नहीं गया था और 1815 में उन्होंने स्वयं अपनी इच्छा से अपने आप को
ब्रिटिश साम्राज्य के संरक्षण
में रखा था
सन् 1907 से लेकर सन्
1920 तक ब्रिटिश
शासन को दिए गए
ज्ञापनों और इस दौरान संयुक्त प्रान्त के गवर्नरों के सम्मुख दिए गए अभिभाषणों से यह स्पष्ट होता है
कि पहचान का
संकट इस दौरान भी पूरी तरह से हावी रहा.स्वतंत्रता के वाद उत्तराखण्ड राज्य की
आवाज संविधान सभा और वाद में भारतीय संसद में भी गूँजती सुनाई पड़ी. क्षेत्रीय
नेता गोविन्द बल्लभ पन्त, बद्रीदत्त पाण्डे, गोवर्धनतिवारी, हरगोविन्द पन्त इत्यादि आजादी की लड़ाई में कूद चुके थे. इनमें से अनेक ने
राष्ट्रीय नेताओं का रूप ले लिया था. इसलिए राष्ट्रीयता की भावना में क्षेत्रीयता
की भावना लुप्त हो गयी.
1952 में उत्तराखण्ड राज्य के आन्दोलन का दूसरा अभियान शुरू होता है. जब कामरेड
पी. सी. जोशी अल्मोड़ा फिर वापस आये. इस समय साम्यवादी हवा जोर पर थी. पी. सी.
जोशी ने उत्तराखण्ड राज्य न्दोलन में
पहली बार मार्क्सवादी दर्शन को पर्वतीय संस्कृति की परिधि से निकालकर उसे आर्थिक
आयाम दिया. कामरेड जोशी ने लगभग दो दशक तक स्वायत्तता की पुरजोर हिमायत की. उसको
एक आन्दोलन का रूप दिया. कामरेड जोशी की मृत्यु के बाद अचानक ऐसा लगा कि
उत्तराखण्ड राज्य का आन्दोलन समाप्त हो गया है. शिक्षित नवयुवकों का एक नया वर्ग
जो वामपंथी विचारधारा से तो प्रभावित था ही, सुन्दरलाल बहुगुणा, कमलाराम, टियाल हिम्मत सिंह और चण्डी प्रसाद भट्ट जैसे
सामाजिक सुधारवादियों के प्रभाव में आकर पर्वतीय समाज के सामाजिक अपराधियों को
चुनौती देने के लिए पूरी तरह तैयार हो गया. उसका यह निश्चय पूरे कुमाऊँ और गढ़वाल
में आयोजित की जाने वाली नुक्कड़ सभाओं में समय-समय पर व्यक्त होता था. इस वर्ग
में शमशेर सिंह विष्ट, चन्द्रशेखर पाठक, प्रदीप टम्टा, पी. सी. तिवारी, दीवानी घपोला और वालम सिंह
जनौटी नवयुवक थे.
1980 तक उत्तराखण्ड के लोगों में स्वायत्त्तता या, पृथक्रा ज्य के प्रति कोई उत्साह नहीं था. कुछ
समय पश्चात्उ त्तराखण्ड संघर्ष वाहिनी' ने जन्म लिया. 'उत्तराखण्ड संघर्ष वाहिनी' ने कामरेड जोशी की स्वायत्तता की अवधारणा को पुनर्जीवित किया.
जुलाई 1979 उत्तराखण्ड
राज्य आन्दोलन में सदा याद रखने योग्य है. दिनांक 24-25 जुलाई, 1979 को मसूरी
में प्रसिद्ध वैज्ञानिक और कुमाऊँ विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति डॉ. देवीदत्त
पन्त की अध्यक्षता में राज्य न बनने एवं विकास की गति न बढ़ने के कारण उत्पन्न
कुंठाओं और हताशाओं से पीड़ित अनेक कुमाऊँनी गढ़वाली समाज सेवियों, शिक्षाविदों और शिक्षित युवाओं द्वारा आयोजित
सम्मेलन में एक नये संगठन का जन्म हुआ, जिसे उत्तराखण्ड क्रान्ति दल कहा गया.
मसूरी में आयोजित सम्मेलन में कुमाऊँ गढ़वाल के नित्यानन्द भट्ट, के. एन. डनियाल, ललित किशोर पाण्डे, वीर सिंह ठाकुर, इन्द्रमणि बडोनी, देवेन्द्र सनवाल जैसे-प्रमुख लोगों की उपस्थिति में डॉ. पन्त ने पृथकुू
उत्तराखण्ड राज्य के निर्माण के लिए एक राजनीतिक मंच की वकालत आरम्भ करनी शुरू कर
दी.
उत्तरांचल क्रान्तिदल का मुख्य लक्ष्य पहाड़ के आठ जिलों जिनमें रुड़की और
हरिद्वार की तहसीलें और तराई भावर के पूरे क्षेत्र को एक पृथक उत्राखण्ड राज्य का
दर्जा दिलवाना था. 2-3 अप्रैल, 1980 को हल्दावानी में आयोजित महासम्मेलन में
उक्रान्द का जो संविधान पारित किया गया. उसमें दावा किया गया कि उत्तराखण्ड राज्य
की प्राप्ति शान्तिमय और जनतंत्रीय तरीकों से की जायेगी.
1980 में हुए विधायी और संसदीय चुनावों में हुई डॉ. देवीदत्त पन्त की हार से
उक्रांद को एक झटका लगा. 198। से 1989 जक उत्तराखण्ड का कोई न कोई भाग और दिल्ली और
लखनऊ के राजनीतिक स्थल उक्रान्द की गतिविधियों का केन्द्र बनते रहे जलसे, जुलूस, बन्द, चक्का जाम, हड़ताल आदि उक्रान्द की रणनीति का अव एक अंग बन
चुका था. दस वर्ष के अल्प समय में ही उक्रान्द कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के
विरुद्ध एक गम्भीर चनौती के रूप में सामने आ गया, जिसने उत्तराखण्ड राज्य वकी माँग को वास्तव में एक जन-आन्दोलन का रूप दिया,
1987 में
उक्रान्द को विभाजन का एक झटका लगा और दल की बागडोर युवा नेता काशी सिंह ऐरी के
हाथ में आ चुकी थी. इन्द्रमणि वडोनी और जसवन्त सिंह विष्ट ने उदारता और उग्रता के
मध्य का रास्ता चुनना उचित समझा.
जसवन्त सिंह विष्ट मूलरूप से समाजवादी चिन्तन से जुड़े हुए पहाड़ के गांधी
के रूप में विख्यात होने लगे थे. 1989 में वह पुनः विधान सभा के लिए चुने गए, जबकि डीडीहाट से काशी सिंह ऐरी निर्वाचित हुए. जसवन्त सिंह विष्ट ने
उक्रान्द को पहली विजय दिलवायी, उक्रान्द के
विधायक के रूप में विधान सभा में उत्तराखण्ड राज्य का पहला प्रस्ताव रखा.
15 जनवरी, 1992 को उक्रान्द
ने पृथकु राज्य के बारे में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज जारी किया. यहाँ उन्होंने
चन्द्रनगर को प्रस्तावित राज्य की राजधानी घोषित किया इस दस्तावेज को उक्रान्द का
पहला ब्लू प्रिन्ट माना गया. एक निर्णय के अनुसार 21 जुलाई, 1992 को काशी
सिंह ऐरी ने गैरसैंण में प्रस्तावित राज्य की नींव डाली और उसका नाम चन्द्रनगर
घोषित किया. इस सम्मेलन से काशी सिंह ऐरी की अपने दल पर पकड़ मजबूत हुई और शाससन
ने उन्हें उत्तराखण्ड का विशेषरूप से पृथक् राज्य आन्दोलन के सन्दर्भ में एक
निर्विवाद नेता भी मान लिया.
27 नवम्बर, 1992 को पृथक्
राज्य की लडाई को लेकर उक्रान्द, उजसवाँ, आई. पी. एफ. इत्यादि ने अपने मतभेदों को भुलाना
स्वीकार कर लिया. एकता सम्मेलन में राजा बहुगुणा, काशी सिंह ऐरी, शमशेर सिंह विष्ट प्रताप
विष्ट, पी. सी. तिवारी, प्रदीप टमटा, घनश्याम जोशी जैसे युवा नेताओं ने भाग लिया, लेकिन अपने तमाम पूर्व निर्णयों और प्रस्तावों के विरुद्ध 1993 के मध्यावधि चुनावों में पूरी तरह भाग लिया, लेकिन काशी सिंह ऐरी के अतिरिक्त अन्य सभी
प्रत्याशियों ने अपनी जमानत खो दी. सन् 1988 में स्वयं लालकृष्ण आडवाणी ने पृथक उत्तराखण्ड राज्य की जोरदार शब्दों में
वकालत करना शुरू कर दी. भाजपा उत्तराखण्ड का मुद्दा आगामी चुनावों के लिए प्रयोग
करना चाहती थी. 1991 के संसदीय
चुनाव में भाजपा को अप्रत्याशित सफलता मिली.
उत्तराखण्ड
की चारों संसदीय सीटों पर भाजपा के उम्मीदवार विजयी हुए. भाजपा ने उत्तराखण्ड
आन्दोलन को उक्रान्द से छीन लिया था. वास्तव में वावरी मस्जिद, राम जन्मभूमि के विवाद और 'जय श्रीराम' के नारे ने उत्तराखण्ड को भी पूरी तरह प्रभावित किया. विधायनी सफलता से
उत्तर-प्रदेश में कल्याण सिंह की सरकार बनी. भाजपा ने उत्तराखण्ड शब्द को बदलकर
उत्तरांचल कर दिया. विरोधी दलों ने अपने भाषणों में कहा कि भाजपा शाब्दिक विवाद
खड़ा करके लोगों का ध्यान वास्तवकि मुदुदे से हटाकर उन्हें गुमराह कर रही है. आई.
पी. एफ. ने जनता से आह्षान किया कि उत्तराखण्ड राज्य की माँग के विरुद्ध रची गयी
कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी की व्यूह रचना को असफल बनाने के लिए एकजुट होकर
काम करें.
शुरू में कांग्रेस पृथकृ राज्य में विरुद्ध थी, लेकिन अपने को पहाड़ों में बचाने के लिए वह भी पृथक् राज्य की
माँग का समर्थन करने लगी.
पृथकु उत्तराखण्ड राज्य के मुद्दे को लेकर पूरा उत्तराखण्ड राजनीतिक दलों के लिए राजनीतिक चालों का अखाड़ा
बना चुका था. इस
समय यह देश का एक ऐसा पहला क्षेत्र था. जहाँ राष्ट्र के अनेक दिग्गज अपनी-अपनी
राजनीति में लगे हुए थे.
इस आन्दोलन में एक नया मोड़ तव आता है जब 1991 में जनता दल की प्रदेश में पराजय के वाद मुलायम सिंह यादव ने अपनी नई
समाजवादी पार्टी का निर्माण किया.
27
अगस्त, 1992 को देहरादून में आयोजित पार्टी के एक संयुक्त अधिवेशन में एक प्रस्ताव
पारित किया गया, जिसमें पृथकु उत्तराखण्ड
राज्य के औचित्य को स्वीकार किया गया.
1993 के विधान सभा चुनावों में मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी को सफलता
मिली. तब मुलायम सिंह मुख्यमंत्री वने. उत्तराखण्ड के प्रति अपनी निष्ठा दिखाते
हुए मुलायम सिंह ने वरिष्ठ मंत्री रमाशंकर कौशिक की अध्यक्षता में एक कैविनेट
कमेटी की नियुक्ति कर दी, जिसका लक्ष्य प्रस्तावित
उत्तराखण्ड राज्य की संरचना और मुख्य रूप से राजधानी तय करना था. इसके अलावा विनोद
बड़ध्वाल (राष्ट्रीय सचिव सपा) की अध्यक्षता में एक कमेटी नियुक्त की. इस कमेटी का
उद्देश्य वुद्धजीवियों और गैर-राजनीतिक लोगों की राय और सुझावों के आधार पर पृथक्
उत्तराखण्ड गज्य की अनिवार्यता पर सुझाव देना था. वड़ण्वाल कमेटी के अन्य सदस्य
थे-जसवन्त सिंह विष्ट, नरेन्द्र लाल भण्डारी, मंत्री प्रसाद नैयानी, वर्फिया लाल जुआठा, राना भूपेन्द्र सिंह, द्वारका प्रसाद डनियाल, सूर्यकान्त धस्माना, आई. पी. सक्सेना, सुभाष शर्मा और उमा पाण्डे.
5 मई, 1994 को कौशिक
कमेटी ने उत्तराखण्ड पर अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत कर दी. कमेटी ने तत्कालीन पर्वतीय
जिलों को मिलाकर पृथकु उत्तराखण्ड राज्य के निर्माण की सिफारिश की. 'गैरसैण' को प्रस्तावित राज्य की राजधानी बनाने की सिफारिश की गयी. 14 जिलों और 3 कमिश्नरियों के नवसृजन की वात कही गयी. काशी सिंह ऐरी ने स्वीकार किया कि
कौशिक कमेटी ने अधिकतर उन वातों की सिफारिशों की जिनकी माँग वह एक लम्बे समय से
करते आ रहे थे.
21 जून, 1994 को मुलायम
सिंह यादव ने कौशिक कमेटी की सिफारिशों को स्वीकार कर लिया और 24 अगस्त, 1994 को सरकार ने पहाड़ के आठ जिलों को मिलाकर पृथकू उत्तरांचल (अब उत्तराखण्ड)
राज्य से सम्बन्धित प्रस्ताव प्रस्तुत किया. जिसे विधान सभा ने सर्वसम्मति से पास
कर दिया.
विरोधी दल मुलायम सिंह की लोकप्रियता में बढ़त देखकर नाराज थे, वे ऐसे अवसर की ताक में थे जब मुलायम सिंह के
विरुद्ध अभियान छेड़ा जा सके और उन्हें यह मुद्दा तब मिला जब मुलायम सिंह यादव
सरकार ने अपने एक आदेश द्वारा उत्तराखण्ड में भी सरकारी नौकरियों और शिक्षण
संस्थाओं में अन्य पिछड़ी जातियों के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था लागू कर दी. इस आदेश ने पूरे उत्तराखण्ड को
हिलाकर रख दिया.
वास्तव में 27 प्रतिशत आरक्षण का विरोध अपने
प्रथम चरण में आर्थिक और मनोवैज्ञानिक आधारों पर था. एक ओर डर यह था कि पहाड़ों
में 27 प्रतिशत आरक्षित स्थानों पर
उपयुक्त प्रत्याशियों के अभाव में मैदानी लोग रिक्त स्यानों को हड़प लेंगे तथा
जातीय और सांस्कृतिक विरासत का ताना-बाना बिगाड़ देंगे. पूरे उत्तराखण्ड से भाजपा
ने ऐरी मुलायम गठबन्धन के विरुद्ध जन-जागरण का अभियान छेड़ दिया था.
इसके अलावा इन्द्रमणि बडोनी अपने सात विनम्र सहयोगियों के साथ 2 अगस्त, 1994 को पौड़ी में 27 प्रतिशत आरक्षण की वापसी की
माँग के समर्थन और उत्तराखण्ड राज्य के लिए 'आमरण अनशन' पर बैठ गए. एक सप्ताह आमरण
अनशन शान्तिपूर्ण ढंग से चलता रहा, लेकिन 7 अगस्त को जब उनका स्वास्थ्य
बिगड़ने लगा, तो पौड़ी के जिलायिकारी ने
उनको गिरफ्तार कर लिया. पौड़ी के क्रोधित छात्र हिंसा पर उतर आए. इसमें पुलिस की
गोली से एक व्यक्ति
मारा गया.
इसके बाद तो
जन-जन में आक्रोश फुट पड़ा. सरकार विरोधी नारे लगने लगे, प्रदर्शन होने लगे ऐरी ने 11 और 20 अगरत को पीड़ी और नैनीताल में जेल भरो का आह्वान किया. नैनीताल और पीड़ी
में उनके कहने पर रैकड़ों लोगों ने आरक्षण विरोध तथा पृथक राज्य के पक्ष में अपनी
गिरफ्तारी दे हाली. इस अभियान में भाजपा और कांग्रेस भी कृद पड़ी. 15 अगरत को ऐरी नैनी झील के किनारे आमरण अनशन पर
वैठ गए. अनशन पर वैठने से पूर्व उन्होंने पहाड़ के लोगों को आगाह किया कि वे भाजपा
और कांग्रेस की पृथक् राज्य विरोधी चालों से होशियार रहे, जैसे जैसे ऐरी की हालत विगड़ने लगी. लोगों का
आक्रोश भी वढ़ता गया. 19 अगस्त को विधान सभा के सत्र
में कुमाऊँ विश्वविद्यालय के दो छात्रों ने दर्शक दीर्पा से आरक्षण विरोधी पर्चे
फेंके और सरकार विरोधी नारे लगाए, भूखे प्यासे
ऐरी लखनऊ पहुँचे और उन्होंने विधान सभा में अपने त्यागपत्र की घोषणा की.
उत्तराखण्ड की जनता का भावात्मक रूप देखते हुए अन्ततः मुलायम सिंह सरकार ने 24 अगस्त, 1994 को पृथकु उत्तरांचल राज्य का प्रस्ताव पारित करते हुए उसे विधान सभा से
सर्वसम्मति से पास करवा लिया.
मुलायम सिंह सरकार के प्रस्ताव का पूरे उत्तराखण्ड में जबर्दर्त स्वागत
किया गया, लेकिन 27 प्रतिशत आरक्षण का मुद्दा ज्यों का त्यों था.
छात्र अब यह महसूस करने लगे कि उनका दुरुपयोग राजनीतिज्ञों द्वारा किया रहा है भावना के साथ छात्रों ने क्षेत्रीय राजनेताओं के
विरुद्ध जिहाद छेड़ दिया. परिणामस्वरूप कांग्रेस के सभी विधायकों ने अपने
त्यागपत्र की घोषणा की.
काशी सिंह के त्यागपत्र का गढ़वाल पर गहरा प्रभाव पड़ा. बन्द और चक्काजाम
ने एक दिन पूरे जीवन को अस्त व्यस्त कर दिया. सभी सार्वजनिक प्रतिष्ठानों पर
सन्नाटा छा गया .
इस आन्दोलन पर दिए गए मुख्यमंत्री के बयानों को
क्षेत्रीय समाचार-पत्रों व भाजपा ने बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया. पूरे पहाड़ कुछ ही
दिनों में सरकार विरोधी युद्ध उद्पोषणाओं से गूँज उठे, 1993 में मुलायम सिंह यादव ने भाजपा को चुनावी मात दी
थी. इसलिए बदला लेने की भावना से भाजपा ने मुलायम सिंह यादव के बयान की खूब उछाला.
आरक्षण का मुद्दा और पृथकु राज्य का सवाल पर्दे के पीछे चला गया था और मुलायम सिंह
यादव का वक्तव्य उत्तराखण्ड की राजनीति का केन्द्रीय विषय वन चुका था.
हिंसात्मक संघर्ष की पहली सूचना नैनीताल जिले के नगर खटीमा से आई. 1 सितम्बर को पुलिस ने छात्रों एवं पूर्व सैनिकों
की एक अनियंत्रित रैली पर गोली चला दी, जिसमें 25 लोग मारे गए.
जिसका कारण भाजपा कार्यकर्ताओं द्वारा पुलिस पर हिंसा करना था, दूसरी सुबह मसूरी में झूलाघर पर एक वड़ी भीड़
विरोध प्रकट करने इकट्ठा हो गयी. उत्तेजित लोगों ने भाषण सुनने के बाद पास लगे एक
पी. ए. सी. के एक कैम्प पर हल्ला योल दिया. टेन्टों को आग लगा दी. पुलिस के हथियार
लूट लिए गए और एक पुलिस अधिकारी उमाकान्त त्रिपाठी की हत्या कर दी. परिणामस्वरूप
पुलिस गोलीवारी में 6 व्यक्ति मारे गए.
फिर क्या था उत्तराखण्ड विरोध प्रदर्शनों की चपेट में आ गया. युवा काले, लाल रूमाल सिर से बाँधे हुए उग्र नारों के साथ
सड़कों पर निकल आए. कुछ ने स्वयं को उत्तराखण्ड कमाण्डो फोर्स' कहा और कुछ ने टाइगर फोर्स का रूप धारण कर लिया.
छात्रों ने निराशाओं के प्रवाह में बहकर 'समानान्तर सरकारें' गठित करना शुरू कर दिया.
৪ सितम्बर को उत्तराखण्ड में
संयुक्त संघर्ष समिति के आह्वान पर 48 घण्टे का बन्द आरम्भ हो गया. जिसने पूरे जीवन को अस्त-व्यस्त कर दिया.
7 सितम्बर को मुलायम सिंह ने आरक्षण के मुद्दे पर सर्वदलीय बैठक बुलाई जिसमें
कांग्रेस व भाजपा ने भाग नहीं लिया और गैर-भाजपा और कांग्रेस दलों ने 27 प्रतिशत आरक्षण को उत्तराखण्ड में लागू करने में
अपना विश्वास दोहराया.
जब उत्तराखण्ड आन्दोलन मनोवैज्ञानिक दौर से गुजरने लगा था. सच तो यह है कि
यह अपने लक्ष्य से दूर होता जा रहा था. अब आन्दोलनकारियों का असली निशाना मुलायम
सिंह यादव की सरकार थी. भाजपा और कांग्रेस इस अवसर का लाभ उठा रहे थे.
कुमाऊँ और गढ़वाल के छात्रों ने राजनीतिक यथार्थ को स्वीकार कर लिया. 18 सितम्बर को रामनगर में छात्रों द्वारा आयोजित
सम्मेलन में उत्तराखण्ड छात्र युवा संघर्ष समिति का गठन किया गया. जिसका एक मात्र
लक्ष्य 'उत्तरांचल राज्य' का निर्माण था.
1995 में उत्तराखण्ड आन्दोलन पूरी तरह गढ़वाल तक सीमित रहा. आन्दोलन को ठण्डा
करने के लिए मोतीलाल वोरा ने नवम्बर में ही उत्तराखण्ड को सर्वोच्च न्यायालय के एक
फैसले की रोशनी में 'सामाजिक और शैक्षिक' तौर पर पिछड़ा घोषित करके उसे विशेषरूप से
शैक्षिक संस्थाओं के
सन्दर्भ में 27 प्रतिशत आरक्षण की परिधि में लाने का फैसला कर लिया था. यही नहीं उत्तर-प्रदेश के सभी मेडिकल और इन्जीनियरिंग कॉलेजों
में उत्तराखण्ड के छात्रों को 27 प्रतिशत
आरक्षण की सुविधा उपलब्ध करा दी, जिससे
उत्तराखण्ड में एक खुशी की लहर दौड़ पड़ी. 1996 को आगामी संसदीय और उत्तर प्रदेश में विधायनी चुनाव होने थे. सभी राजनीतिक
दलों की आँखें उत्तराखण्ड के वोट बैंक पर थीं. सभी ने उत्तराखण्ड को अपना नावी
मुद्दा बना लिया.
भाजपा नेताओं के वक्तव्यों और क्षेत्रीय समाचार-पत्रों के सनसनी खेज
उद्घाटनों के मध्य, उक्रान्द ने आह्वान किया कि
वे संसद का घेरा करें.
2 अक्टूबर की रात को रुड़की मुजफ्फरनगर मार्ग पर दिल्ली कूच कर रही
उत्तराखण्डी आन्दोलनकारियों से भरी बसों को पुलिस ने चेकिंग के लिए रोका. आन्दोलनकारियों ने पुलिस की कार्यवाही को एक चुनौती के रूप में
लिया और इस तरह रामपुर तिराहे पर पुलिस और आन्दोलनकारियों के मध्य आन्दोलन में साठ
लोगों की मृत्यु हो गयी. कुछ महिलाओं के साथ बलात्कार और सैकड़ों के हताहत होने की
खबर मिली.
भाजपा ने इस घटना को मुलायम सिंह के विरुद्ध एक हथियार के रूप में इस्तेमाल
करना शुरू कर दिया. भाजपा उत्तराखण्ड राज्य के निर्माण से अधिक उत्तर-प्रदेश में
मुलायम सिंह यादव
की सरकार को बर्खास्त करवाने में अधिक दिलचस्पी रखती थी, लेकिन मुजफ्फरनगर काण्ड के बाद भी कांग्रेस की
केन्द्रीय सरकार ने 4 अक्टूबर को पृथक् उत्तरांचल
राज्य के निर्माण से साफ इनकार कर दिया.
वास्तव में अब उत्तराखण्डी वहुत हताश थे. पृथकू राज्य का निर्माण नहीं हो
पाया था. छात्रों और तमाम लोगों ने यह अनुभव किया कि सभी राजनीतिक दलों ने उनकी
भावनाओं से खिलवाड़ करते हुए उनका फायदा उठाया है.
उत्तराखण्ड पृथकू राज्य का मुद्दा तो सभी दलों के एजेण्डे में शामिल हो गया. सन् 2000 में राज्य में भाजपा सरकार ने इसे केन्द्र के पास भेज दिया, जबकि यह प्रस्ताव मुलायम सिंह ने भी पूर्व में
विधान सभा से पास करवाया था. इस बार केन्द्रीय सरकार ने इस प्रस्ताव को स्वीकार
करते हुए संसद से पास करवा लिया. फलतः तीन नये राज्यों की अनुमति मिल गई, जोकि उत्तराखण्ड, छत्तीसगढ़ व झारखण्ड है.
अंततः 9 नवम्बर, 2000 को उत्तरांचल राज्य अस्तित्व में आ गया तथा यह
देश का 27वा राज्य हुआ. राज्य के प्रथम
मुख्यमंत्री नित्यानन्द स्वामी तथा प्रथम राज्यपाल पद को सुरजीत सिंह बरनाला ने सुशोभित
किया.
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