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उत्तराखंड का इतिहास | history of Uttrakhand

 

उत्तराखंड का इतिहास | history of Uttrakhand 


प्रमुख विषय:- 

  1. मौर्या वंश  और उत्तराखण्ड
  2. बिदेशी आक्रान्ता और उत्तराखण्ड
  3.  उत्तराखण्ड : कुणिन्द शासक
  4. अमोघभूति
  5.  अल्मोड़ा के कुणिन्द शासक

  6. गुप्त वंश और उत्तराखण्ड
  7. हर्ष और उत्तराखण्ड

  8. पौरव राजवंश
  9. कत्यूरी राजवंश
  10. निम्बर
  11. इष्टगण देव
  12. ललितशूर देव (835 ई.)

  13. भूदेव (875 ई.)

  14. सलोणादित्य बंश
  15. इच्छटदेव
  16. देशटदेव
  17. पद्मदेव
  18. सुभिक्षराजदेव
  19. चंद बंश
  20. आत्माचन्द
  21. अशोकचल्ल


 प्रकृति की सुरम्य वादियों में बसा पुण्यवत्सला भूमि उत्तराखण्ड अनादिकाल से देवगण, ऋषियों एवं तपस्वियों केलिए निवास स्थल एवं तपोभूमि रहा है. यह भूमि राजा भरत की जन्मस्थली भी रही है. कुमाऊँ शब्द कुम्माचल (कू्मा + अंचल, कूर्मा - कच्छप, अचल -पर्वत) जिसका तात्पर्य होता है-कच्छप पर्वत. स्कन्ध पुराण के अनुसार भगवान विष्णु ने चम्पावत के निकट काली नदी में कच्छप का रूप धारण किया था, जिससे इस प्रदेश का नाम कूम्मांचल या कुमाऊँ पड़ा. पौराणिक ग्रन्थों में इस भू-भाग को 'उत्तराखण्ड' या 'केदारखण्ड के नाम से उद्धृत किया गया है. महर्षि वेदव्यास ने इस प्रदेश के महत्व का वर्णन करने के लिए एक पुराण की ही रचना कर डाली. यह भारत का परम पावन प्रदेश उत्तराखण्ड है. 

 

मौर्या वंश  और उत्तराखण्ड

ईसा से तीसरी शताब्दी पूर्व मौर्य वंश का महान् सम्राट अशोक ने देहरादून जनपद के चकराता तहसील में यमुना नदी के किनारे कालसी नामक स्थान पर पत्थर की शिला पर राष्ट्र के सन्देश को अंकित करवाया था. फिर भी, प्रत्यक्ष रूप से ऐसा कोई साक्ष्य प्राप्त नहीं होता, जिसके आधार पर मौर्य शासकों की विजय उत्तराखण्ड पर सिद्ध की जा सके. दिव्यावदान में यहाँ के निवासियों का सम्बन्ध अशोक से जोड़ा गया है, जिसके आधार पर इतना स्वीकार किया जा  सकता है कि यहाँ के निवासियों का अस्तित्व सम्भवतः अनेक सीमावर्ती जातियों की तरह था, जिनका वर्णन अशोक के शिलालेखों में है. सम्भवतः अन्य सीमावर्ती जातियों की तरह उत्तराखण्ड के निवासी भी स्वतन्त्रता का उपयोग करते थे तथा यदाकदा मौर्य सम्राट को भेंट आदि देकर प्रसन्न कर दिया करते थे. सम्राट अशोक की मृत्यु के पश्चात् यहाँ का इतिहास स्पष्ट नहीं है. 

 


बिदेशी आक्रान्ता और उत्तराखण्ड

  मौर्य सम्राट अशोक की मृत्यु के पश्चात् दुर्बल मौर्य शासक इस पर्वतीय प्रदेश पर अपना प्रभुत्व कायम नहीं रख सके. विदेशी आक्रान्ताओं में यवन प्रमुख रहे. इनके विषय में भी साक्ष्यों का अभाव है, जिससे किसी निष्कर्ष पर पहुँचा जा सके. फिर भी डॉ. ए. के. नारायण मीनांडर के अभियान को

इसमस  नदी तक स्वीकार करते हैं, परन्तु इसमस नदी का समीकरण आज भी विवादग्रस्त है. राहुल सांकृत्यायन ने अपने शोध के आधार पर जोशीमठ और पांडुकेश्वर के मंदिरों पर ग्रीक कला के प्रभाव को स्वीकार किया है. अन्य विदेशी शक्तियों में शक, पह्नव तथा कुषाणों का नाम उल्लेखनीय है. इन बाह्य शासकों ने उत्तर भारत के राजनीतिक स्वरूप को पर्याप्त समय तक यथेष्ट मात्रा में प्रभावित किया. 

उत्तराखण्ड : कुणिन्द शासक

 कुणिन्द शासकों के विषय में भी अनेक प्रकार के विवरण मिलते हैं. यहाँ से प्राप्त विभिन्न मुद्राकोषों तथा अनेकानेक साक्ष्यों में इस प्रदेश के लिए कुलूत, कुलिन्द, कुविन्द नाम का प्रयोग हुआ है. डॉ कनिंघम ने कुणिन्दों का समीकरण कांगड़ा के कुनैतों से करते हैं तथा इनका उद्भव स्थान मध्य हिमालय की निचली ढलानों पर स्वीकार करते हैं, परन्तु यह सन्देहास्पद है. इस सन्दर्भ में टॉलमी कुणिन्दों को गंगा की ऊपरी घाटी का निवास वताता है. कुणिन्द शासक हिमालय की आदि जनजाति थे तथा उत्तर भारत के विभिन्न पर्वतीय प्रदेशों पर अधिकार कर लिए थे. 

         कुणिन्दों के उद्भव के विषय में यह सम्भावना प्रकट की जा सकती है कि मौर्यों के पतन के पश्चात् शुंग शासक उस समस्त क्षेत्र को एकसूत्र में बाँधने में असफल रहे जिस पर उनके पूर्ववर्ती शासकों ने अधिकार किया था. अतः इस राजनीतिक अस्थिरता का लाभ उठाकर ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में उत्तर भारत में अनेक जनों का उद्भव हुआ. सम्भवतः कुणिन्द भी उनमें से एक थे, जिन्होंने उत्तराखण्ड के विभिन्न भागों पर शासन किया. 

         कुणिन्दों के प्रारम्भिक इतिहास को स्पष्ट करने के लिए विभिन्न प्रकार की मुद्राएँ प्राप्त हुई हैं. ये मुद्राएँ उत्तराखण्ड के विभिन्न स्थानों से मिली हैं. यर्यपि इन मुद्राओं से कुणिन्दों की राजनीतिक गतिविधियों का क्रमबद्ध स्पष्ट व्यौरा प्राप्त नहीं होता, फिर भी श्रुध्न और अल्मोड़ा से प्राप्त इस वंश के कुछ शासकों की मुद्राएँ प्राप्त हुई हैं, जिनमें अमोघभूति, मार्गभूति, शिवदत्त, हरिदत्त तथा शिवपालित की मुद्राएँ उल्लेखनीय हैं. इस आधार पर इनके राजनीतिक क्रियाकलाप का कुछ विवरण अग्र प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है-

  

अमोघभूति

इस शासक की अनेक मुद्राएँ प्राप्त हुई हैं. ज्वालामुखी के समीप एक खेत में यवन सम्राट अपालोडोटस की तीस मुद्राओं के साथ अमोघभूति की मुद्राएँ मिली हैं. इस आधार पर कनिंघम ने इसकी तिथि 150 ई. पू. स्वीकार की है. अपालोडोटस के साथ कृणिन्द नरेशों की मुद्राओं का मिलना इस सम्भावना की पुष्टि करता है कि यवन सम्राट अपालोडोटस की मृत्यु के पश्चात् अमोघभूति ने अपने साम्राज्य की स्थापना की.

अल्मोड़ा के कुणिन्द शासक

अल्मोड़ा से इस वंश की चार मुद्राएँ प्राप्त हुई हैं, जिससे इन चार नरेशों का पता चलता है-

(1  मृगभूति या मार्गभूति
(2) शिवदत्त
(3) हरिदत्त 
(4) शिवपालित

        वैसे इन शासकों का क्रमवार विवरण साक्ष्याभाव में कठिन है, लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि यवनों के (Indo-Greeks ) पतन के पश्चात्इ न पर्वतीय शासकों ने पर्याप्त शक्ति प्राप्त कर ली थी. उत्तराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्रों के अतिरिक्त भावर-तराई के समीपस्थ मैदानी क्षेत्रों तक ये अभियान करने लगे थे, परन्तु इनके ये अभियान इतने सीमित थे कि कुषाण शासक कनिष्क। ने इनकी अपेक्षा मैदानों में पड़ने वाली शक्तियों को ही पहले अपना लक्ष्य वनाया. अतः यह सम्भव है कि कुषाणों के प्रारम्भिक अभियानों से अछूते बचकर कुणिन्द शासक लम्बे समय तक उत्तराखण्ड के पवर्तीय भागों तथा भावर- तराई से सटे मैदानी क्षेत्रों पर भी शासन करते रहे. नैनीताल जिले के काशीपुर (गोविषाण) (काशीपुर अब ऊधमसिंह नगर जिले में है) नगर में कुषाण सम्राट वासुदेव द्वितीय की कुछ स्वर्ण मुद्राएँ प्राप्त हुई, जिनके आधार पर कहा जा सकता है कि कुणिन्दों की बढ़ती हुई शक्ति पर अन्तिम कुषाण नरेशों ने अंकुश लगाने का प्रयत्न किया तथा उन्हें पर्वतीय क्षेत्रों में ही रहने के लिए बाध्य किया. कुणिन्दों का शासन उत्तराखण्ड में जोशीमठ, वाराहाट गोविषाण, दिकुली आदि केन्द्रां की तरह सुरुघना क्षेत्र पर था. इन विभिन्न के न्द्रोंसे विभिन्न शाखाएँ शासन करती थीं, जो सम्भवतः कुणिन्दों के मुख्य केन्द्र से नियन्त्रित होती थी. यह मुख्य केन्द्र सुरुषना में था. सम्भवतः ये एकात्मक शासन व्यवस्था में बँधे थे.

 

गुप्त वंश और उत्तराखण्ड

प्रयाग प्रशस्ति (समुद्रगुप्त) में प्रत्यन्त राज्यों में समतट, डवाक, कामरूप, नेपाल और कर्तृपुर का उल्लेख हुआ है, जहाँ के शासक कर आदि देकर समुद्रगुप्त को प्रसन्न करते थे. कर्तृपुर के विषय में विद्वानों में मतभेद रहा है. छगलेश की प्रशस्ति के अनुसार समुद्रगुप्त से कुछ समय पूर्व अथवा प्रारम्भिक शासनकाल में जयदास नाम का राजा कुणिन्द जनपद के  पश्चिमी भाग में शासन कर रहा था. उसके बाद यादव नरेशों ने शासन किया. समुद्रगुप्त के बाद उसका उत्तराधिकारी चन्द्रगुप्त द्वितीय राजा बना. साहित्य में वर्णित ध्रुवस्वामिनी की कथानुसार चन्द्रगुप्त ने शधिपति को मारकर उसकी राजधानी कार्तिकेयनगर पर अ धिकार कर लिया. यह नगर यामुन प्रदेश से पूर्व में तथा नेपाल के पश्चिम में स्थित था तथा कार्तिकेय नगर उसकी राजधानी थी. इस प्रदेश पर चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य से लेकर स्कन्दगुप्त तक गुप्तों का अधिकार बना रहा. इसके बाद यहाँ नाग शासकों ने शासन किया. गुप्तकाल में किन अधिकारियों ने यहाँ शासन किया, साक्ष्याभाव है, परन्तु स्कन्दगुप्त (455-467 ई.) के वाद उत्तराखण्ड में निम्न स्थानीय शासकों के विवरण प्राप्त होते हैं, जिसमें स्कन्दनाग,विशुनाग, अशुनाग (गोपेश्वर त्रिशूल लेख), जयपति नाग, गणेश्वर और गुह (बाराहाट त्रिशूल लेख) का नामोल्लेख है. गुप्तों के बाद सेहपुर के यादव नरेशों ने कुछ समय के लिए उत्तराखण्ड के लाखामण्डल क्षेत्र पर शासन किया.


हर्ष और उत्तराखण्ड

 प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग ने अपने यात्रा विवरण में यमुना नदी की पश्चिमी पनढ़ाल से लेकर करनाली काली गंगा तक के उत्तराखण्ड के प्रदेश को श्रुध्न जनपद, ब्रह्मपुर और गोविषाण जनपद के रूप में वर्णन किया है, परन्तु यहाँ के शासकों का नाम नहीं लिया है, इस विवरण के आधार पर डॉ. आर. एस. त्रिपाठी का अनुमान है कि वे सभी राज्य जिनके शासकों का नाम ह्वेनसांग ने नहीं लिया, वे सबके सब हर्षवर्धन के प्रत्यक्ष शासन के अन्तर्गत थे. इस अनुमान के आधार पर हर्ष का अधिकार उक्त तीनों प्रदेशों पर था. शेष उत्तराखण्ड राज्य के विषय में राहुल सांकृत्यायन का विचार है कि तिब्बती सम्राट स्त्रोंग गाम्पों (629-647) ने अपनी शक्ति का विस्तार चीन और नेपाल तक बढ़ाया, लेकिन स्थायी सफलता नहीं प्राप्त कर सका, क्योंकि पलेठा और तालेश्वर के शिलालेखों में पौरव नरेशों के प्रमाण मिलते हैं, जो उत्तराखण्ड के दक्षिणी और पूर्वी भाग पर शासन कर रहे थे.

 

पौरव राजवंश

उत्तराखण्ड के पूर्वी भाग में अल्मोड़ा जिले के तापेश्वर नामक स्थान पर दो ताम्र लेख प्राप्त हुए हैं, जिनमें पर्वताकार राज्य के पाँच पौरव नरेशों का पता चलता है. ये नरेश थे-

(1) विष्णुवर्मन (प्रथम) 
(2) वृषवर्मन
(3) अग्निवर्मन
(4) घुतिवर्मन
(5) विष्णुवर्भन (द्वितीय)


     
इन नरेशों के विषय में किसी विशेष बात का पता नहीं चलता. हर्ष के बॉसखेड़ा व मधुवन ताम्र लेखों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि पौरव नरेशों का उद्भव हर्ष की मृत्यु के बाद हुआ. पौरव नरेशों के साम्राज्य के विषय में साक्याभाव है. 

 

कत्यूरी राजवंश

पौरव नरेशों के बाद उत्तराखण्ड में राजनीतक दृष्टि से एक ऐतिहासिक वंश का उदय हुआ, जिसे 'कत्यूरी' अथवा "कत्यूरी' के नाम से जाना जाता है. तिब्बतियों के पतन के पश्चात् वासुदेय नाम के शक्तिशाली महत्वाकांक्षी नवयुवक ने जोशीमठ में कल्यूरी वंश की नींव डाली. कल्यूरियों की राजधानी कार्तिकेयपुर थी (जोशीमठ, गढ़वाल). सातवीं शताब्दी में कत्यूरियों ने अपनी राजधानी कार्तिकेयपुर वैजनाथ में स्थापित की, जिसका नेता वसंतन था. वागेश्वर शिलालेख के अनुसार बसंतन के बाद असातनामा, खर्परदेव तथा कत्याणराज देव का नाम आता है. इनके नाम के आगे परमभट्टारक महाराजाधिराज की उपाधियाँ मिलती हैं. इनके राजनीतिक स्थिति के विषय में कोई सूचना नहीं मिलती. वसंतन और उसका अज्ञातनामा उत्तराधिकारी दोनों शैव थे. उन्होंने अनेक धर्मशाला तथा पंथों का निर्माण कराया. कत्याण राजदेव के बाद त्रिभुवन राजदेव शासक हुए. इन्होंने दो द्रोण की भूमि व्याप्रेश्वर की पूजा के लिए सुगन्धित द्रव्यों के उत्पादन हेतु प्रदान की. त्रिभुवन के बाद  एक अन्य शासक निम्वर (निम्ब्तदिव) का नाम आता है.

 

निम्बर

निम्बर ने भगवान शिव के प्रसाद के शत्रु तिमिर को हटाकर अपनी भुजाओं के बल से राज्य प्राप्त किया. विवरणों में उसे 'शत्रुहंता' और युद्ध विशेषज्ञ कहा गया है. उत्तराखण्ड में पालों ने अभियान किया था. ऐसा प्रतीत होता है दोनों में सम्मानजनक सन्धि हो गई थी. निम्वर शैव था और उसने जागेश्वर में विमानों का निर्माण करवाया.

 

इष्टगण देव

निम्बर के बाद सम्भवतः 810 ई. में उसका पुत्र इष्टगण देव राजा हुआ. ललितशूर के ताम्र शासन से विदित होता है कि उसने अपनी उज्ज्वल कृपाण द्वारा मत हस्तियों का मस्तक विदीर्ण करके अपनी यश पताका फहराई थी. कत्यूरी वंश का यह प्रथम नरेश था, जिसने कार्तिकेयपुर के ध्यवज के अन्तर्गत समस्त उत्तराखण्ड को एकसूत्र में बाँधने का प्रयत्न किया. यह भी अपने पिता की तरह शैव था तथा जागेश्वर में नवदुर्गा महिषामर्दिनी लकुलीश तथा नटराज के मंदिर का निर्माण सम्भवतः उसी ने कराया.

 

ललितशूर देव (835 ई.)

अपने पिता और प्रपिता की भांँति ललितशूर देव भी सम्भवतः एक विशाल साम्राज्य का स्थामी था. उसके तामपत्नों में उसे कलिकलंक-पंक में मग्न धरती के उद्धार के लिए वराहावतार के समान बताया गया. सम्भवतः ललितशूर देव को भी अपने प्रपिता निम्बर की भाँति किसी मैदानी शासक से लोहा लेना पड़ा था. पाल शासक देवपाल (810-850) ने समस्त उत्तर भारत के शासकों से (हिमालय से विन्ध्याचल तक) उपहार प्राप्त किए. उत्तराखण्ड की राजनीतिक स्थिति को देखते हुए देवपाल के आक्रमण को स्वीकार किया जा सकता है. ऐसा प्रतीत होता है दोनों में एक सन्धि हो गई, ललितशूर देव शैव या, परन्तु वह वैष्णव धर्म का भी आदर करता था. वैष्णव मंदिर को दान देने का विवरण मिलता है.

 

भूदेव (875 ई.)

ललितशूर देव के बाद उसका पुत्र सम्भवतः 875 ई. में राजा बना. शिलालेख में उसे राजाओं का राजा कहा गया है.-वह विशाल साम्राज्य का स्वामी था. शिलालेख में उसे परम ब्राह्मण भक्त तथा शुद्ध श्रवण-रिपु कहा गया है, जिससे स्पष्ट विदित होता है कि उसने सर्वथा बौद्ध धर्म का विरोध किया था. उसने सम्भवतः बैजनाथ मंदिर के निर्माण में सहयोग दिया था.


सलोणादित्य बंश

भूदेव के पश्चात् एक नवीन शाखा का पता चलता है, जिसका संस्थापक सलोणादित्य था. वह अपनी भुजाओं की शक्ति से शत्रु-व्यूह को नष्ट करने वाला बताया गया है. वह शैव था तथा नंदा देवी की पूजा करता था.

 

इच्छटदेव

सलोणादित्य के पश्चात् उसका पुत्र इच्छटदेव सम्भवतः 920 ई. में सिंहासन पर वैठा. उसके समय में कोई महत्वपूर्ण घटना नहीं घटी.

 

देशटदेव

देशटदेव अपने पिता के बाद 930 ई. में राजा बना. ताम्रपत्रों में उसे शत्रुओं के समस्त कुचक्रों को नष्ट करने वाला कहा गया है, उसने प्रतिहार शासक महिपाल के विरुद्ध अभियान किया था. वह शैव था तथा ब्राह्मणों का अत्यधिक आदर करता था.

 

पद्मदेव

देशटदेव के पश्चात् उसका पुत्र पद्मदेव 954 ई. के लगभग शासक बना. अभिलेखों में उसे अपने बाहुबल से समस्त दिशाओं को जीतने वाला बताया गया है. वह अपने पिता की भाँति शिव का उपासक था तथा बहुत बड़ा दानीं था ।  इसने जोशीमठ, नाला, वेहट तथा वैजनाथ (अल्मोड़ा) में मंदिरों का निर्माण करवाया था.

 

सुभिक्षराजदेव

पद्मदेव के बाद 10वीं शताब्दी में सुभिक्ष-राजदेव शासक हुआ. उसने महत्वाकांक्षी शासकों का दमन किया. वह वैष्णव धर्म का पोषक था. उसने अपने नाम के आधार पर अपनी राजधानी का नाम सुभिक्षपुर रखा. सुभिक्षराज कत्यूरी वंश का अन्तिम महत्वपूर्ण शासक था, जिसने दसवीं शताब्दी के अन्त तक शासन किया. इसके बाद कत्यूरी वंश में कौन-कौन शासक हुए ठीक से पता नहीं चलता. परम्परागत विवरण व जनश्रुतियों के अनुसार अन्तिम शासक बीरदेव की मृत्यु के बाद कत्यूरी वंश का पतन हो गया.

 

चंद वंश

इस वंश का उत्तराखण्ड में उदय कव और कैसे हुआ ? इस विषय में साक्ष्याभाव है, परन्तु जनश्रुतियों के अनुसार कत्यूरी वंशके पतन के पश्चात् उत्तराखण्ड फिर एक वार छोटे-छोटे शासकों में बँट गया, तव कन्नौज के किसी सोमचन्द ने उत्तराखण्ड का अभियान किया तथा ब्रह्मदेव की पूत्री से विवाह करके दहेज में पन्द्रह बीसी (बीघा) भूमि प्राप्त की तथा भाबर और तराई के पर्याप्त भाग का शुल्क प्राप्त करने का अधिकार भी पाया. सम्भवतः यही सोमचन्द इस वंश का संस्थापक था. उसने सम्भवतः 20 वर्ष तक शासन किया.

 

आत्माचन्द

सोमचन्द के बाद उसका पुत्र आत्माचन्द शासक बना. इसके शासन में कोई महत्वपूर्ण घटना नहीं घटी. आत्माचन्द के वाद पूर्णचन्द, इन्द्रचन्द, संसार सुधा, हम्मीर (हरी) तथा बीना के नाम मिलते हैं. बीना की मृत्यु (1100) के बाद खस लोगों ने काली कुमाऊँ में अपने राज्य की स्थापना की. चंद शासकों की दुर्बलता का लाभ उठाकर खस लोगों ने विद्रोह किया. यह काल पूर्ण रूप से अराजकता और अस्थिरता का युग था.

 

अशोकचल्ल

गोपेश्वर के त्रिशूल अभिलेख में एक राजा का नाम मिलता है, जिसको पढ़ने में विद्वानों में विवाद रहा है. इस राजा को अनेकमल्ल, अशोकचल्ल, भुवनेकमल्ल तथा अशोकमल्ल पढ़ा गया है, परन्तु यह नाम अशोकचल्ल ठीक प्रतीत होता है, यह अशोकचल्ल नेपाल के मल्ल वंश का स्वीकार कर सकते हैं. बाराहाट के त्रिशूल अभिलेख पर शोकचल्ल का भी लेख मिलता है, जिसमें उसकी वीरता तथा महानता की प्रशंसा की गई है. गोपेश्वर अभिलेख के अनुसार उसकी सर्वगामिनी वाहिनी ने केदारभूमि को जीता था, जिससे प्रकट होता है कि उत्तराखण्ड के पूर्वी भाग के कुछ प्रदेशों को छोड़कर शेष सारे पर्वतीय प्रदेश को अशोकचल्ल ने जीता था.