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उत्तराखंड में प्राकृतिक वनस्पति एवं वन सम्पदा /Natural vegetation and forest wealth in Uttarakhand

 
उत्तराखंड में प्राकृतिक वनस्पति  एवं वन  सम्पदा /Natural vegetation and forest wealth in Uttarakhand



प्राकृतिक बनस्पति
प्राकृतिक वनस्पति के मामले में उत्तराखण्ड एक समृद्ध प्रदेश है. यहाँ विभिन्न प्रकार की वनस्पतियाँ, पेड़-पौधे एवं जड़ी बूटियों से प्रदेश भरा पड़ा है. उत्तराखण्ड के हिमालय क्षेत्र लगभग 64-79 प्रतिशत भू-भाग में वन पाए जाते हैं यहाँ वनों के अन्तर्गत कुल क्षेत्रफल का लगभग 67-2 प्रतिशत गढ़वाल हिमालय में तथा शेष 32:8 प्रतिशत भाग कुमाऊँ हिमालय में स्थित है

 उत्तराखंड के हिमालयी क्षेत्र जड़ी-बूटियों के लिए एक स्वर्ग हैं। यहां 1000 से अधिक विभिन्न प्रकार की जड़ी-बूटियां पाई जाती हैं, जिनमें से कई दुनिया में कहीं और नहीं पाई जाती हैं। इन जड़ी-बूटियों का उपयोग सदियों से आयुर्वेदिक चिकित्सा में किया जाता रहा है, और उनका उपयोग विभिन्न प्रकार के रोगों के इलाज के लिए किया जाता है।
 
 
उत्तराखंड के हिमालयी क्षेत्र में पाई जाने वाली कुछ जड़ी- की एबूटियां 
  1. अरण्डी (Arandi): अरण्डी के बीजों से प्राप्त तेल विभिन्न चिकित्सा उपयोगों के लिए जाना जाता है, जैसे कि जोड़ों के दर्द में राहत और त्वचा के लिए उपयोगी होता है।
  2. भूतवेत्स (Bhoot Veths): यह जड़ी-बूटी अनेक स्थानीय आयुर्वेदिक उपचारों के लिए महत्वपूर्ण है, जैसे कि पेचिश, बुखार, और विषाक्तता के इलाज में।
  3. कुटकी (Kutki): यह जड़ी-बूटी पाचन और त्वचा संबंधी समस्याओं के उपचार में उपयोगी होती है, साथ ही त्वचा को निखारती है।
  4. अमला (Amla): अमला में विटामिन सी की अधिक मात्रा होती है और इसका नियमित सेवन सेहत के लिए फायदेमंद होता है, साथ ही यह बालों और त्वचा के लिए भी उपयोगी होता है।
  5.  भूमिआमलाकी (Bhumiamalaki): यह जड़ी-बूटी पेशाब की समस्याओं, पेट की सफाई, और पाचन को सुधारने में मदद कर सकती है।
  6. भ्रिंगराज (Bhringraj): भ्रिंगराज के पत्ते बालों के स्वास्थ्य के लिए उपयुक्त माने जाते हैं और यह बालों को मजबूत और चमकदार बनाने में मदद कर सकता है।
  7. जटामांसी (Jatamansi): जटामांसी का उपयोग मस्तिष्क को शांति और तनाव मुक्ति प्रदान करने में किया जाता है।
  8. कांचनार (Kanchanar): यह जड़ी-बूटी गले के कैंसर और थायरॉइड समस्याओं के इलाज में मदद कर सकती है।
  9. नीम (Neem): नीम के पत्ते, बीज, और तने का उपयोग त्वचा संबंधी समस्याओं, जैविक कीट प्रबंधन, और औषधीय गुणों के लिए किया जाता है।
 
ये सभी जड़ी-बूटियां उत्तराखंड के प्राकृतिक वन्यजीव में पाई जाती हैं और वहाँ की जीवनशैली और परिस्थितियों से जुड़ी हुई हैं। इनका उपयोग स्थानीय लोगों द्वारा विभिन्न स्वास्थ्य समस्याओं के इलाज में लंबे समय से किया जा रहा है।

उत्तराखंड में वनों का वितरण   
 
10वीं वन रिपोर्ट के अनुसार राज्य के जिलों में वन की
स्थिति-
 

 जिला

 बन का क्षेत्र एवं (प्रतिशत)

 उत्तरकाशी

 3,144 (39.22)

 चमोली

 2,698 (33.60)

 पिथौरागढ़

 2,077 (29.29)

 पीड़ी गढ़वाल

 3.271 (61.38)

 नैनीताल

 3,088 (72.64)

 टिहरी गढ़वाल

 2,138 (58.70)

 अल्मोड़ा

 1577 (50.24)

 देहरादून

 1,593 (51.59)

 ऊधमसिंह नगर

 564 (22.19)

 हरिद्वार

 630 (26.69)

 वागेश्वर

 1,380 (61.44)

  स्ट्रप्रयाग

 1,120 (56.45)

चम्पावत

 1,162 (65.80)

 
  • राज्य में सर्वाधिक और सबसे कम वन क्षेत्रफल वाले जिले क्रमशः- पौड़ी  और ऊधमसिंह नगर हैं.
  • राज्य में सर्वाधिक वन क्षेत्र वाले 4 जिले घटते क्रम में क्रमशः- पौड़ी (3271 वर्ग किमी), उत्तरकाशी (3,144), नैनीताल (3,088) व चमोली (2698) हैं.
  • जिले के कुल क्षेत्रफल में वन क्षेत्र के प्रतिशत की दृष्टि राज्य में सर्वाधिक और सबसे कम प्रतिशत वाले जिले क्रमशः हैं- नैनीताल (72-64%) व ऊधरमसिंह नगर (22.19%).
  • सर्वाधिक वन प्रतिशत वाले 4 जिले घटते क्रम में क्रमशः  नैनीताल (72.64%), चम्पावत (65.80%), बागेश्वर (61.44%) व पौड़ी (61-38%).
  • राज्य में सबसे अधिक सघन वन नैनीताल (548 वर्ग किमी) में है. फिर क्रमशः देहरादून (487) व पिथौरागढ़ (470) में है.
  • राज्य में सर्वाधिक मध्यम सघन वन पौड़ी (2065) में, फिर क्रमशः उत्तरकाशी (2062), नैनीताल (1936) व चमोली (1558) में है. सबसे कम ऊ.सि.न. (246) में है.
  • राज्य में सर्वाधिक सघन (अति + मध्यम) वन क्रमश पौड़ी (2515 वर्ग किमी), नैनीताल (2484), उत्तरकाशी (2470) व चमोली (1964) में है.
  • राज्य में सर्वाधिक खुले वन क्रमशः पौड़ी (756), चमोली (734), उत्तरकाशी (674) व टिहरी (656) में हैं. सबसे कम उधमसिंह नगर में है.
  •  राज्य में सर्वाधिक झाड़ी क्रमशः टिहरी, पिथौरागढ़, पौड़ी व देहरादून में है.
  • राज्य के कुल वन क्षेत्र का 59-70% गढ़वाल मण्डल में और शेष 40.30% कुमाऊँ मण्डल में है.
  • गढ़वाल मण्डल के कुल वन क्षेत्र में से 22.41% (सर्वाधिक) पौड़ी में है, जबकि कुमाऊँ मण्डल के कुल वन क्षेत्र में से 31.35% (सर्वाधिक) नैनीताल में है.
  • राज्य के नदी बेसिनों के कुल क्षेत्रफल में वनों के प्रतिशत की दृष्टि से देखें, तो सर्वाधिक प्रतिशत वन टौंस बेसिन (76.6%) में, फिर क्रमशः कोसी (69.0%), यमुना (56.7%), काली गंगा (शारदा) (45.4%) व रामगंगा (41.5% ) में हैं. भागीरथी बेसिन में 34.9% व अलकनन्दा बेसिन में 32.1% है.
 
    इस प्रदेश का अधिकांश भाग वनों से ढका हुआ ऊँचाई व वर्षा की मात्रा का वनस्पति पर प्रभाव पड़ता है. यहाँ पर निम्न प्रकार के वनस्पति क्षेत्र मिलते हैं, जो इस प्रकार हैं-
 
(i) उपोष्ण बन पेटी-    यह हिमालय प्रदेश पर उत्तर- पश्चिम से दक्षिण-पूर्व दिशा में फैले हुए हैं. यह वास्तव में भावर क्षेत्र के उत्तर में अर्द्ध-पतझड़ वनों की पेटी है. यह दक्षिणी ढालों पर 750 मीटर तक तथा उत्तरी ढालों पर 1200 मीटर की ऊँचाई तक मिलते हैं. यहाँ के साल प्रमुख वृक्ष हैं-सेमल, हल्दू, खैर, सीसू तनु, जामुन, शहतूत, रीठा खर. इन वनों के वृक्ष की लम्बाई 25 मीटर से 40 मीटर तक होती है. इसके अलावा वनों के साथ छोटी-छोटी अन्य प्रजातियाँ भी मिलती हैं अन्य प्रमुख वृक्ष हैं.
 
(ii) शीतोष्ण वन पेटी-    दक्षिणी ढालों पर 1050 से 1900 मीटर तथा उत्तरी ढालों पर 900 से 1800 मीटर के बीच पाए जाते हैं. चीड़, देवदार, खरसू, कैल तथा गेंठी आदि यहाँ के प्रमुख वृक्ष हैं. यहाँ अनेक प्रकार की घासें भी मिलती हैं.
 
(iii) उप-अल्पाइन -     यह 1800 से 3000 मीटर की ऊँचाई तक पर्वतीय ढालों पर. मिलते हैं. कम ऊँचाई पर पतझड़ व चौड़ी पत्ती तथा अधिक ऊँचाई पर कोणधारी वृक्ष मिलते हैं. ओक यहाँ का प्रमुख वृक्ष है. सिलवरफर, नीला पाइन, स्पूस, देवदार, साइप्रस, वर्च यहाँ के अन्य प्रमुख वृक्ष हैं.
 
(iv) अल्पाइन पेटी-    3000 से 4500 मीटर की ऊँचाई तक विस्तार मिलता है. महान हिमालय श्रेणी के उत्तरी भाग में वर्च के वृक्ष मिलते हैं. ऊँचाई के साथ साथ वर्च व सिलवर फर के वृक्ष धीरे-धीरे झाड़ियों व छोटी घास में बदल जाते हैं. इन वनों से प्राप्त होने वाले मुख्य वृक्ष हैं-देवदार, स्प्रूस, सिलवरफर ब्ल्यूपाइन आदि.
 
(v) घास के मैदान-`अधिक ऊँचाई पर पहुँचने पर उत्तराखण्ड में 3800 मीटर से 4200 मीटर की ऊँचाई वाले क्षेत्रों में वृक्ष विहीन क्षेत्र है, क्योंकि यहाँ की जलवायु कठोर है यह क्षेत्र हिमाच्छादित रहता है. इसलिए यहाँ केवल छोटी छोटी घासें ही उगती हैं जिन्हें स्थानीय भाषा में  बुग्याल और पयार आदि नामों से जाना जाता है. अधिक ऊँचाई में स्थित इन घास के मैदानों को मीडो तथा अल्पाइन पाश्चर भी कहते हैं.
 
  
बन संरक्षण हेतु राजकीय प्रयास

    उत्तराखण्ड में वनों के विकास के लिए 1 अप्रैल, 2001 को वन विकास निगम का गठन किया गया है. 5 जुलाई से 31 अगस्त तक हरियाली योजना के रूप में वृक्षारोपण किए जाने का कार्यक्रम निर्धारित है. वन अपराधों पर नियंत्रण हेतु राजस्व पुलिस एवं वन विभाग की संयुक्त टास्क फोर्स का गठन किया गया है. वन पंचायतों के अधिकारों में वृद्धि कर उन्हें अधिक शक्तिशाली बनाया गया है. वन क्षेत्र. में पड़ने वाले नदी नालों में रेत, वजरी एवं पत्थर खनन का कार्य वन निगम द्वारा कराया जा रहा है ताकि अविध खनन पर रोक लग सके. इसके अतिरिक्त प्रत्येक वन प्रभाग में जड़ी-बूटी की नर्सरी विकसित की जा रही है.