उत्तराखंड की जनजातियाँ :- भोटिया |Tribes of Uttarakhand:- Bhotia |
उत्तराखण्ड की खूबसूरत पर्वतीय अंचल
की सामाजिक रचना में जहाँ-वहाँ की विशिष्ट राजनीतिक गतिविधियों ने यथेष्ट प्रभाव
डाला, वहीं उस क्षेत्र की
जनजातियों का भी महत्वपूर्ण योगदान है. यह जनजातियाँ समय समय पर इस प्रदेश-में
प्रवेश करती गईं तथा अपनी विशिष्ट परिस्थितियों, वंश परम्परा और उपयोगिता के आधार पर भावर-तराई की पट्टी से
लेकर भोटांतिक (12000 फीट से ऊँचे)छेत्रों तक छा गई. इन जातियों की अपनी-अपनी वेशभूषा, रीति-रिवाज तथा धार्मिक परम्पराएँ
हैं. उत्तराखण्ड की प्रमुख जनजातियों में भोटिया, बुक्सा, जीनसारी, राजी तथा थारु आदि हैं. उत्तराखण्ड के गठन के पूर्व 1967 ई. तक उत्तर प्रदेश में कोई अनुसूचित
जाति नहीं थी, लेकिन पहली वार जून 1967 में पाँच जनजातियों को-भोटिया, भोक्सा (बुक्सा), जौनसारी,राजी तथा थारू को अनुसूचित जनजाति
घोषित किया गया. इन प्रमुख जनजातियों के विषय में अलग-अलग अध्ययन समीचीन प्रतीत
होता है-
उत्तराखंड की जनजातियाँ :- भोटिया |Tribes of Uttarakhand:- Bhotia |
भोटिया
उत्तराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्र में स्थित 'भोट प्रदेश' में निवास करने वाले लोगों को 'भोटिया' कहा जाता है. भोट प्रदेश उत्तर
पर्वतीय क्षेत्र में तिब्बत एवं नेपाल के सीमावर्ती भाग को कहते हैं, भोटिया जनजाति उत्तराखण्ड के
अल्मोड़ा, चमोली, पिथौरागढ़ तथा उत्तरकाशी क्षेत्र में
फैली हुई हैं.
भोटिया जनजाति के लोग मंगोल प्रजाति
के वंशज हैं. भोटिया जनजाति की जीविका का एकमात्र साधन पशुपालन है, कभी-कभी ये घर बनाकर भी रहते हैं, वास्तव में कहने के लिए इनका कोई घर
नहीं होता है, घुमक्कड़पन ही इनका जीवन है, जहाँ भेड़ों के लिए चारा मिलता है, वहीं चल देते हैं. ऊन, हींग, जीरा तथा सुहागा बेचकर अपनी जीविका चलाते हैं. भेड़ों का
भी व्यवसाय करते हैं. परन्तु सर्दियों के जिस महीनों में यहाँ बर्फ के तूफान चलते
हैं. ये लोग अपनी भेड़-बकरियों के साथ नीचे के स्थानों में चले आते हैं. ग्रीष्म
ऋतु में पुनः अपने स्थान को लौट जाते हैं, भोटिया लोग गौर वर्ण के होते हैं. वे लोग हिमालय के
तिब्वती वरमन परिवार से सम्बन्धित बोलियाँ वोलते हैं.
उत्तराखंड की जनजातियाँ :- भोटिया |Tribes of Uttarakhand:- Bhotia |
रहन-सहन
भोटिया लोग देखने में तिब्वती मालूम पड़ते हैं. पहनावा
यहाँ का होते हुए भी उस पर तिब्वती वेशभूषा का प्रभाव है. पुरुष घुटनों तक लम्बे
चौंगे पहनते हैं. सिर पर तिब्बती ढंग की टोपी अथवा एक प्रकार की पगड़ी बाँधते हैं.
स्त्रियों की वेशभूषा में ऊँची वाँह वाला कोट है, जिसे चुंग कहते हैं. यह चुंग टखनों तक का होता है. सिर को
ढकने के लिए स्त्रियाँ चादर का प्रयोग करती हैं. कुछ स्त्रियाँ वालों को ढकने के
लिए रुमाल भी बाँधती हैं. ये कानों में वालियाँ, हाथों में चृड़ियाँ तथा गले में कण्टीमाला पहनती हैं.
विवाह
भोटिया लोगों में विवाह करने के लिए लड़के अथवा लड़की पर
किसी प्रकार का कोई प्रतिवन्ध नहीं है, उन्हें पूरी स्वतन्त्रता होती है. फिर भी, माता-पिता की अनुमति लेना आवश्यक
समझा जाता है. जब लड़का तथा लड़की एक-दूसरे को पसन्द कर लेते हैं तथा विवाह करके
एकसूत्र में बँधने को तैयार हो जाते हैं, तव लड़का अपने किसी मित्र के द्वारा कुछ रुपए एक रुमाल में
बाँधकर लड़की के माता-पिता के पास भिजवाता है. लड़की के माता-पिता इस वात पर ध्यान
से विचार करते हैं, क्योंकि कई बार सन्तान अनुभवहीन होने के कारण चयन करने में धोखा खा
जाते हैं. सामान्य रूप से माता-पिता विवाह में कभी बाधा नहीं उत्पन्न करते हैं.
माता-पिता वर को स्वीकृति भेज देते हैं. किसी शुभ दिन पर लड़का वारात लेकर लड़की
के घर आता है. बिना किसी संस्कार के ही लड़की को डोली में विठाकर ले जाता है. जब
लड़का, लड़की को लेकर जाने लगता है
उस समय लड़की वाले रास्ता रोककर खड़े हो जाते हैं एवं बनावटी युद्ध होता है, जिसमें लड़की वाले को हारना पड़ता है, फिर लड़का, लड़की को अपने घर ले जाता है. इसके
बाद लड़की का पिता अपने सगे-सम्बन्धियों के साथ लड़के के घर जाता है तथा वहाँ
पहुँचने पर रीति अनुसार विवाह सम्पन्न किया जाता है.
उत्तराखंड की जनजातियाँ :- भोटिया |Tribes of Uttarakhand:- Bhotia |
रांग बाग कुड़ी
भोटिया लोगों के प्रत्येक गाँवों में
चौपालें लगाई जाती हैं, जिन्हें 'रांग बाग कुड़ी' कहते हैं. शाम के समय सभी युवक युवतियाँ यहाँ एकत्रित होते हैं. यहीं
पर अविवाहित लड़के लड़कियाँ अपने जीवन साथी का चुनाव करते हैं. यहाँ मनोरंजन भी
होता है. एकत्रित लोग वारी-वारी से नृत्य करते हैं, अतिथियों को 'रांग वाग कुड़ी' में ही ठहराया जाता है अन्यत्र ठहराने पर मेहमान अपना
अपमान समझता है. परिवार में अपने मेहमान को ठहराना ये लोग उचित नहीं समझते हैं.
धार्मिक विश्वास
इन लोगों में शिव तथा शेषनाग की पूजा का बहुत महत्व है.
सभी शुभ अवसरों पर इन देवताओं की पूजा होती है.
चारित्रिक विशेषताएँ
भोटिया लोग चरित्र के बड़े ऊँचे होते हैं. ये लोग अपने
घरों में ताला नहीं लगाते हैं. यहाँ आज भी ऐसे लोग हैं, जो ताले के प्रयोग से अपरिचित हैं, कोई भी वस्तु वह कितनी ही मूल्यवान
क्यों न हो, कोई हाथ नहीं लगाता है.
संगीत
भोटिया लोगों में तीन प्रकार के गायन प्रचलित हैं-तुबेरा, वाज्यू तथा तिमली. तुवेरा राग उत्तर
प्रदेश के गाँवों में चलने वाले 'रसिया' गानों की तरह शृंगार रस से परिपूर्ण होते हैं. ये गीत भोटिया भाषा में
होते हैं. 'बाज्यू' गीत वीर रस से भरा होता है. 'तिमली' गीत साधारण सामाजिक तथा प्रकृति के विषयों को लेकर लिखे गए
होते हैं.
मृतक संस्कार
इनका मृतक संस्कार वहुत सादा होता है. मृतक के श्राद्ध
करने की रीति सरल एवं विचित्र है. जिस दिन मृतक का दाह संस्कार किया गया हो, उसी दिन किसी झरने या पोखर के किनारे
ये लोग एक पौधा वो देते हैं तथा उसे दस दिन तक प्रतिदिन जाकर पानी दिया करते हैं, इनके समाज में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शुद्र चारों वर्ण के लोग
पाए जाते हैं. तथापि अधिकांश लोग वैश्य एवं शुद्र जाति के है. इस जनजाति के
सांस्कृतिक सम्बन्ध तिब्बत से रहे हैं, अतः आज भी इनमें श्रेष्ठ ब्राह्मण का कार्य करने वाले 'लामा' ही है. यर्तमान समय में ये लोग वौद्ध संस्कृति को भूलते जा
रहे हैं और हिन्दू संस्कृति को अपनाते जा रहे हैं.
विवाह
इस जनजाति में गन्धर्व विवाह की प्रथा प्रचलित है. लड़की
को पसन्द कर लेने के पश्चात् लड़का उसे रात्रि में भगाकर अपने घर ले जाता है.
दूसरे दिन लड़की के घर वाले अपने कुछ लोगों के साथ लड़के के घर जाते हैं जहाँ
लड़के को डंडों से पीटते हैं. इसके पश्चात् लड़का और लड़की को घर लाकर दूल्हा के
दाहिने माथे और दुल्हन के बाएँ माथे पर घी का टीका लगाकर उनको विवाह बन्धन में
वाँध दिया जाता है. दोनों पक्ष वैठकर 'छांग' जोकि एक प्रकार की शराब है पीकर आनन्द मनाते हैं. इनमें पुनर्विवाह, बहुपति विवाह एवं बहुपत्नी विवाह की
प्रथाएँ प्रचलित हैं. युवक- युवतियों में विवाह से पूर्व शारीरिक सम्बन्ध होना एक
सामान्य घटना मानी जाती है.
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कलात्मक अभिरुचि
इनमें कलात्मक अभिरुचि विशेष रूप से पाई जाती है. इनकी भवन
निर्माण कला, चित्रकारी आदि के उत्कृष्ट
नमूने इनके मूल ग्रामों बगोरी, नेलंग आदि में देखे जा सकते हैं. आर्थिक जीवन जाड़ स्त्रियाँ सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक जीवन में
महत्वपूर्ण योगदान देती हैं. इनकी स्त्रियाँ घरेलू उद्योग-धन्धों और व्यापार में
पुरुषों की तरह कार्य करती हैं. ये स्त्रियाँ बहुत मेहनती होती हैं. ये स्त्रियाँ
ऊनी वस्त्र जैसे पट्टु, 'थुलमा', 'टूमकर', 'पंखी', 'चुटका', 'कम्बल', फाँचा', 'आंगड़ा' आदि अत्यंत कलात्मक ढंग से बनाती हैं.
त्यौहार
इस जनजाति के लोग वर्ष में मुख्य रूप से दो ही त्यौहार
मनाते हैं. इन दोनों त्यौहारों का इनके जीवन में विशिष्ट स्थान है, 'लौह सर' का त्यौहार वसन्त पंचमी के दिन मनाया
जाता है. इसे इनके वर्ष का पहला दिन माना जाता है. इस दिन भगवान बुद्ध को प्रसन्न
रखने के लिए प्रत्येक घर में झंडा लगाया जाता है, जिसमें पाँच विभिन्न रंगों के कपड़ों के टुकड़े बाँधे जाते
हैं. इनका दूसरा प्रमुख त्यौहार 'शूरगैन' है. जो भाद्र माह के बीसवें दिन से प्रारम्भ होता है इस समय तीन दिनों
तक देवता के समक्ष भेड़-बकरियों की पूजा की जाती है तथा उसके बाद सम्मिलित रूप से
उनकी ऊन उतारी जाती है.
भाषा
इनकी भाषा को 'रोग्वा' कहा जाता है जिसका शाब्दिक अर्थ 'निम्न भागों में रहने वाला' है. उच्च घाटियों में निवास करने वाले जाड़ भागीरथी घाटी
में रहने वाले गढ़वाली को 'गंगाडी' कहकर पुकारते हैं. रोग्बा भाषा गढ़वाली भाषा की अपेक्षा तिब्बती भाषा
के अधिक निकट है.
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